Sunday, November 16, 2008

आज का विचार

क्रिक्रेट हमारा' धर्म '|
रियलिटी शो हमारा 'अर्थ'|
स्वछंदता हमारा 'काम'|
और भगवा हमारा" मोक्ष "

Tuesday, November 04, 2008

ऐसा क्यो होता है

ऐसा क्यो होता है ?
जंहा' फूल तोड़ना मना है '
'लिखा है '
वही पर सबसे ज्यादा फूल तोड़ते है |
जहा' नो पार्किंग 'होती है ,
वंही "विशेष "गाडिया खड़ी होती है |
जहा' धुम्रपान 'वर्जित है ,
वही "सूटेड बूटेड "
धुएं के छल्ले उडाते देखे जाते है |
जहा कचरा फेकाना मना है ,
वही पर
पोलिथिनो में बांधकर कचरा फेकते है
"कैन में पेट्रोल ले जाना मना है ,
वही पेट्रोल पम्प पर धड़ल्ले से
कैन भरी देखि जा सकती है |
हम कौनसी भाषा समझते है ,या की
समझनाही नही चाहते
मन्दिर की शान्ति को सराहते है ,
परन्तु
जूतों कीगंदगी
वहा फैला ही आते है
आप ही बताये
ऐसा क्यों होता है |

Wednesday, October 15, 2008

रंग

रिश्तो के अहसास ,बताने से नही होते
उनकी महक महसूस की जाती है |
फूलो की खुशबूआनंद देती है
नाम उसको सार्थक करता है |
नाम उसके रंगों की खोज करता है ,
कोई रंग सुकून देता है ,कोई आभास भर देता है |
रंगों के नाम किसने दिए ?
शायद अहसासों ,आभासों और विश्वासों ने ?
और सचमुच ये अहसास ही जीवन को पूर्ण कर गये |

Saturday, October 04, 2008

कैसी पूजा ?कैसी संस्क्रती ?कैसी श्रद्धा ?


मन्दिरों में बेहिसाब चढावा ,
तीस से .मी .की करोडो "चुननिया ?
करोडो के पंडालों में ,थिरकते ,लाखो लोग |
विदेशो में पूजा में ,
पारम्परिक भारतीय पहनावा ,
भारत में 'आरतियों 'में
वेदेशी पहनावा |
शर्धा ऐसी की
बुढे माँ= बाप
तरसते है सहारे को ,
और मन्दिरों मे ,जुता स्टेंड पर ,
"सेवा "देकर धार्मिक" शर्धा ",से
ओतप्रोत है श्रद्धालु |

'बेठे ठाले '

व्यस्तताओ का बहाना बनाकर ,
अपनों से दूर होते जा रहे है हम लोग |
समय न होने पर भी ,
"बिग बॉस "के निठ्लो को देखकर ,निठ्ले
होते जा रहे है हम लोग |

Friday, October 03, 2008

''समझ''


अपनी  महत्वाकांक्षाओं  को ,
अपना ज्ञान बनाने की भूल कर बैठता है आदमी |
और अपनी इस समझ से ,
सदा दुखी होता रहता है आदमी |

Sunday, September 21, 2008

जाग्रत

जीवन के नेराश्य को
जिसने मुझे मुखरित किया
उन क्षणों को ,जिसने मुझे वाणी दी
आत्मप्रशंसा के अभिमान से निवर्त होकर
आत्म विश्वास दीर्घजीवी हो
परिभाषित जिन्दगी की आकांक्षा नही,
ब्व्न्द्रोमे झुझ्ती भावनाए
शोषित होती कल्पनाये ,
गिरकर उठने का साहस ,
एक अहसास दे गया |

Friday, September 19, 2008

कुछ क्षनिकाए


"आकाश और जमीन"

आकाश की उचाईयो छूने के बाद
सारा जहा मेरा अपना हो गया है
और जमीन से जुड़े रहने की चाह में
मुझसे मेरे अपने जुदा हो गये है

"नीड"
पराये आशियाने में अपना नीड कहा
पराये दर्दो में अपनी पीर कहा
अब तक तो जिए बेखोफ जिन्दगी ,
अब मरने को दो गज जमीन कहा

मंजिल

जिन्दगी से निराश कुछ नवयुवको को देखकर सन२००० मेंयह कविता लिखी थी

तुझे पाने की चाह में ,
अपनी मासूमियत खो बैठे हम |
तेरे नजदीक पहुंचते पहुंचते ,
अपनी इंसानियत खो बैठे हम |
हम भी थे स्कूल के अच्छे बच्चे ,
माँ के सानिध्य में सुस्न्स्कारो में,
प्ले दुलारे |
पिता की आशाओ के तारे
तेरी पथरीली ने प्गदंदियो ने
लहुलुहान कर दिया
तेरी राह के कटीले तारो ने ,
हमे छलनी कर दिया |
निकले थे तुझे खोजने सुंदर से
शहर में,
किंतु
तेरी दम तोड़ती व्यवस्थाओ और
हमरी म्ह्त्वाकंक्षाओ ने
हमे बियाबान दे दिया |

Tuesday, September 16, 2008

विश्वास

मेरे जेहन में चोकोर पत्थर ,
धागे से बंधा हुआ
मानो मेरे अनगिनत प्रश्नों का उत्तर
रिक्तता और शून्य में खोजता अन्तर
उनींदी आँखों की सोच
खुली आँखों का यथार्थ
ढूंढ़ता एक मकसद ,
एक आयाम
ये मेले ये त्यौहार
न रहे तुम्हारे ,
न रहे मेरे पास
ओपचारिकता के बंधन
टूटते से नज़र आते आज
और उस पत्थर के चोकोरपंन में
दबते से मेरे अहसास
अपनों से दूर होने की सिर्फ़ ,
खुशबु है पास
नजदीकियों ने विश्वासों को तोडा है
अपनों ने फ़िर
ओप्चारिक्ताओ को ओढा है

Thursday, August 21, 2008

लोकगीत निमाड़ी

धीर धीर साथ म्हारा गाव ,
असी म्हारी हँसी न उड़ाओ जिजिबाई धीरधीर साथ म्हारा गाओ
पिऊ तो म्हारा परदेस जाइल छे ,सासु बाई देगा मख गाळ
ओ जीजी बाई धीर धीर साथ म्हारा गाओ |
हउ छे खेडा की रीत काई जाणू ,
नन्द बाई ख गावण की हौस ,म्हारी जीजी बाई ,
धीर धीर साथ म्हारा गाओ

बना /बननी [निमाड़ी लोक गीत ]



मीना जडी बिंदी लेता आवजो जी, बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी
आवजो आवजो आवजो जी बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी
माथ सारु बीदी लाव्जो माथ सारु टीको ,
माथ सारु झूमर लेता आवजो जी बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी
गल सारु हार लाव्जो गल सारु नेकलेस ,
गल सारु पेंडिल लेता आवजो जी ,बना पैली पेसेंजेर सी आवजो जी
हाथ सारु चूड़ी लाव्जो हाथ सारू कंगन ,
हाथ सारु बाजूबंद लेता आवजो जी बना पैली पेसेंजेर सी आवजो जी
पांय सारु चम्पक लाव्जो ,पांय सारु बिछिया ,
पांय सारु मेहँदी लेता आवजो जी बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी
अंग सारु साडी लाव्जो ,अंग सारु पैठनी ,
अंग सारु चुनार्ड लेता आवजो जी बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी
आवजो आवजो जी बना पैली पेसेंजर सी आवजो जी

Monday, August 18, 2008

वर्तमान

खामोश रास्ता पार करते हुऐ,
टूटन का एहसास न हुआ
पर भीड़ भरी सड़क पर
टूट सा गया मै |
पक्षियों के कलरव ने तो ,
चुप्पी ही तोडी है
मगर तुम्हारी एक साँस ने
राहगीरों की आत्मा झिझोडी है |
सपने यथार्थ नही होते ,
कहते है
पर यथार्थ
सपनों में होता है |
कौआ अपनी आदत से परेशान
न चाहकर भी झपटकर
रोटी ले उड़ना ही अब बन गई ,
उसकी पहचान
बँगलो की समर्धि ,
गलियों की कानाफूसी
नुक्कड़ की बेगारी,
गाँवो की
चोपालो को ,
समरसता के सूत्र में पीरो गई
टेलीविजन की देखने की क्षमता |

Saturday, August 16, 2008

भारत की समर्धि

स्व्तंत्रता दिवस के दुसरे दिन से कुछ सकल्प ऐसे हो..........
नेता लोग भाषण देना छोड़ दे |
कवि लोग ताना देने वाली कविता करना छोड़ दे|
मौसम विभाग मौसम की भविष्य वाणी करना छोड़ दे |
धर्म गुरु उपदेश देना छोड़ दे |
इन्सान सपने देखना छोड़ दे|
टेलीविजन समाचार चैनल सनसनी फैलाना छोड़ दे |
टेलीविजन पर धार्मिक सीरियल दिखाना छोड़ दे |
अखबारों के सपादक सच लिखना छोड़ दे |
भारत के लाखो करोडो श्र्धालू ,
प्रवचनों में जाना छोड़ दे |
गरीबी ,अशिक्षा और बेरोजगारी के नाम पर ,
राजनीती करने वालो,
क्रप्या राजनीती करना छोड़ दे |
माँ बाप अपनी बहूबेटियों को टी वि के ,
रीय्लीटी शो में भेजना छोड़ दे |
अर्थशास्त्री बाजार के उतर चढाव की ,
भ्विशय्वानी करना छोड़ दे |
ज्योतिषी जीवित रहने के उपाय बताना छोड़ दे |
और अगर हो सके तो
शिक्षक कोचिंग क्ल्लास चलाना छोड़ दे |

Thursday, August 14, 2008

झंडे की खुशबु


बचपन में जब केले का आधा टुकडा मिलता ,सेब की एक फांक मिलती
तो उसका स्वाद अम्रत था
आज के दर्जनों केलो में ,
किलो से स्टीकर लगे सेबों में
वो मिठास नही
एक फहराते हुऐ झंडे को निहारने में
जो धड़कन थी ,
जो रोम रोम की सिहरन थी
वो गली में बिकते हुऐ
तीन रंग की
प्लास्टिक की पन्नी
चोकोर आकार लेते हुऐ
जो कभी कार में सजते है
जो कभी गमले में खोंस दिए जाते है
जो कभी एक सालके बच्छे के हाथ में दे दिया जाता है
उसका मन बहलाने के लिए ,
वो तीन रंग


क्या
वेसा रोमांच ,वेसी सिहरन दे पायेगे कभी

लोकतंत्र

राजा लोंगो का तो राज पाट चला गया किंतु हमारी मानसिकता आज भी राजा जैसी ही है ,फर्क इतना है पहले एक राजा होता था आज तो हर कोई राजा बननेको बेताब है ,इसका ताजा उदाहारण है ,ओलम्पिक में गोल्ड मैडल जीतने वाले श्री अभिनव बिंद्रा परहर राज्य द्वारा दिए गये इनाम की घोषणा ,बेशक अभिनव बिंद्रा ने गोल्ड मैडल जीतकर भारत का विशव में गोंरव बढाया है, इसमे कोई संदेह नही वे सारे भारतवासियों की बधाई के पात्र है,परन्तु इसमे उनकी अपनी ख़ुद की लग्न ,मेहनत ,उनके पिता द्वारा शूटिंग के प्रशिक्षण के लिए दी गई सुविधा का महत्वपूरण योगदान है ,किनतु हमारे राजाओ को तो बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर मिल गया| राजा अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए कभी दाई को कभी नर्तकी को ,कभी कोई चित्रकार को उसी समय अपने गले से मोतियों कीमाला उतारकर दे देते थे , आज के राजा क्यो नही अपनी चेन , अगुठी या महंगी घड़ी उतारकर विजेताओ को दे देते ? वो तो जनता की गाढी कमाईका पैसा ,यु ही लुटा देते है अपनी वाहवाही बटोरने के लिए | जबकि ख़ुद इनाम लेने वालो का मंतव्य है की उस पैसे से और खिलाडियों को अच्छे से अच्छा प्रशिक्षण देकर आने वाले सालों के लिए तैयार किया जा सके लेकिन नही ?हम तो राजा है, लोकतंत्र के| हम अपनी वस्तु केसे दे सकते है हम तो जनता के सेवक है ,हमारा क्या?जो कुछ है जनता का है ,तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा\और हम तुम जनता ,टी वि पर या अख़बार में समाचार पढ़ लेते है आपस में बैठकर मिडिया को कोस लेते है,थोडीदेर अख़बार घडी करके रख देते है या फ़िर टी वि का चैनल बदल देते है ,फ़िर जब कोई विज्ञापन आता
है तो फ़िर से चैनल बदलकर फ़िर से तन्मयता से सनसनी सी खबर देखने बैठ जाते है और कह देते अरे भाई लोकतंत्र है सब कुछ चलता है |

Monday, August 11, 2008

"बिदाई"निमाड़ी लोक गीत

यह गीत लडकी की विदाई के समय यह गीत गया जाता है |
इस गीत का भावार्थ कुछ इस तरह का है ,वधू जब फुल चुनने बाग़ में जाती है व्ही पर उसे वर मिलता है और कहता है मेरे साथ चलो अपने देश में |
तब वधू कहती है जब मेरे दादाजी वर को प्र्खेगे मेरे पिताजी दहेज स्जोयेगे ,मेरा भाई डोली स्जावेगा मेरे जीजाजी
मंडप बनायेगे और मेरी माँ की पूजा करूंगी तब मै तुम्हारे साथ जाउंगी |
फ़िर वधू अपनी माँ से कहती है जब मुझे दुसरे घर ही भेजना था तो मुझे फिर क्यो पाला पोसा और कच्चा दूध पिलाया |

"मंडप"निमाड़ी लोक गीत

म्हारा हरिया मंडप माय ज्डाको लाग्यो रे दुई नैना सी [दो बार ]
म्हारा स्स्राजी गाँव का राजवाई म्हारो बाप दिली केरों राज |ज्डाको लाग्यो रे ...........
म्हारी सासु सरस्वती नदी वय ,महारी माय गंगा केरो नीर ज्डाको लाग्यो रे .............
महारी नन्द कड़कती बिजलई ,महारी बैन सरावन तीज |ज्डाको लाग्यो रे ..............
म्हारो देवर देवुल आग्डो ,म्हारो भाई गोकुल केरो कान्ह|ज्डाको लाग्यो रे .............
म्हारा हरिया मंडप माय ज्डाको लाग्यो रे दुई नैना सी |

Tuesday, August 05, 2008

मौन

जब मौन मुख्रण होता है ,
शब्द चुक जाते है |
तब अहसासों की प्रतीती में ,
पुनः वाणी जन्म लेती है|
और शब्दों की संरचना कर
भावनाओ से परिपूर्ण हो
जीवन को जीवंत करती है |
एक पौधा रोपकर ,
खुशी का अहसास
देती है |
एक पक्षी को दाना चुगाकर ,
सन्तुष्टी का अहसास देती है |
एक दीपक जलाकर
मन के तंम को दूर करती है |
और इसी तरह दिन ,सप्ताह,
महीने और वर्षो की यह यात्रा
जीवन को सत्कर्मो का ,
संदेस दे देती है |
और फ़िर
मौन
शान्ति दे देता है |

Tuesday, July 29, 2008

बेटिया

उन्होंने एक ही रजाई में
अपने सुख दुःख बाटें है |
वाचलता से नही ,
एक दूसरे की सांसो से
एक ही रजाई में सोना,
उनका आपस में प्यार नही ,
उनकी मजबूरी थी |
क्योकि लड़कियों को हाथ पाँव पसारकर ,
सोने की अनुमति नही थी |
उनके उस घर (जो उनका कभी नही था )में ,
उनके दादा दादी ,पिताजी, चाचा,भाई सबका
बिस्तर पलंग प्रथक होता
सिर्फ़ थकी मांदी माँ और बेटियों का बिस्तर
साँझा होता था |
बिस्तर ही क्यो ?
उनके कपडे भी सांझे होते|

उनकी योग्यता ,उनकी प्रतिभा को
सदेव झिड्किया मिलती |
किनतु उन लड़कियों
ने अपने पूरे परिवार के लिए न जाने
कितने ही व्रत उपवास रखे
उनकी खुशहाली की कामना की |
क्योकि
वे उस परिवार की बेटिया थी..............

Friday, July 25, 2008

पहचान

मुझे निष्क्रिय करने वालो
तुम भी अछूते न रहे
मझे छोड़ लापरवाही से ,
तुम खुश रहे |
किनतु कुछ बच्चो ने टूटा खिलौना समझ मुझे उठा लिया |
मेरे अन्दर की बारूद को नन्हे हाथो से रंगकर ,
कई दिनों तक रस्सी बांधकर झूलते रहें, खेलते रहें ,झूमते रहे ,
खुशिया मनाते रहें |
और मै अपना अस्तित्व भूल गया |
फ़िर बच्चे मुझसे उब गये
टूटे खिलोने की भरी टोकरी में ,
मै भी सम्मिलित हो गया |
मेरा बारूद फ़िर बिखरने लगा |
उसके कण कण हवा में उड़ने लगे ,
उनरंग बिरंगे कणों को देखकर मै तम्हें धन्यवाद देता हुँ
की इस" बम्" को तुमने
सही पहचान दे दी |

सावन



सावन के महीने में झूमी डाली डाली है



धरती की हरियाली से आंखे हाली -हाली है
तेरे प्रेम के संदेश से चारो और फेली खुशियाली है
नदियों के कलकल ने संगीत बिखेरा है
कोयल की कुक ने कोमल राग छेड़ा है
हिरनियों ने जंगल को ख्न्गोला है
आज पर्वतों ने भी धानी चुनर को ओढा है


पंछियो ने नीडो को घेरा है
किसान ने अपने बेलो को खोला है


रे मन,तू फ़िर क्यों अकेला है
ये सब क्या तेरे मीत नही ?
आ उस मीत से मिलने की आस में ,
इन मीतो के साथ हो जा
ये तुझे जीवन का ज्ञान देगे
और मीत से मिलने की पहचान देगे
तेरा मीत है उन्नति के शिखर पर
तेरी पुकार उसे अटल रखेगी और
यही तेरे प्रेम की जीत होगी \
से मिलने की पहचान दे |

Wednesday, July 23, 2008

कागज के फुल


शब्दों के पाँव नही होते ,
भावनाओं के बल पर चलते है
संवादों की आहट नही होती ,फ़िर भी बरसते रहते है
अहसासों की प्रतिद्वंदिता में ,
जीवन स्पन्दित होने लगा है
मुसुक्राहते केमरे की केद होकर रह गई है
जीवन के स्थपित मूल्य दिखावा बनकर रह गये है
करेले को शक्र की चाशनी चढाकर ,
परोसने में माहिर हो गये है
नेस्र्गिक फुल अब हमारे बस में नही ,
बेजान फूलों को सजाने में,
अपनी क्षमता का दोहन क्र रहे है

Monday, July 21, 2008

बादलो की सैर




केरल यात्रा के दोरान प्रकर्ति का अतिशय सुंदर रूप देखा ,उसी को शब्दों में ढलने की एक छोटीसी कोशिश की है
रोम रोम पुलकित हुआ जब बादलो से रूबरू हुए
हर दिल हर साँस हमारी खुशबु हुए
आज बादलो का मेला है
बादलो ने ही खेल खेला है





आसमान से उतरकर मेरे आँगन में ,बसेरा डाला है
आज वो रुई का रूप लेकर आए है
कभी पेडो के साथ ,कभी पोंधो के साथ
आँख मिचोली करते मेरे पास मचले है
मचलते हुए मुझे आगोश में लेकर
अपनी कोमलता का अहसास कराकर
मुझसे विदा लेकर
उपर से उपर उठते हुए
पुनः आसमान में विलीन हो गये
और धुप के एक टुकड़े ने
उन्हें और चमकीला बना दिया है

रिश्ते

तार तार रिश्ती को आजमहसूस किया|
मेने बार बार सिने की कोशिश मै
अपने हाथो में सुई भी चुभोई|
किनतु रिशतों की चादर और जर्जर होती गई
क्या उसे फेंकू ?या संदूक मै रखू ?
सोचती रही भावना शून्य क्या सच है ?
कितनी ही बार का भावना शून्य व्यवहार
मानस पटल पर अंकित हो गया
चादर तार तार ज्रूर थी पर उसके रंग गहरे थे |
और उन रंगो ने मुझे फ़िर
भावना की गर्माहट दी
और मै पुनः उन रंगों को पुकारने लगी |
उन पर होने लगी फ़िर से आकर्षित
उस चादर को फ़िर से सहेजा ,
और उनमे खुश्बू भी ढूंढने लगी
और उस खुशबू ने मुझे
ममता का अहसास दे दिया
और मेने चादर को फ़िर सहलाकर
सहेजकर रख दिया|
रिशतों की महक को महकने के लिए |

सीढिया

क्विता
सीढिया कभी बढ़ती नही ,वो स्थिर रहती है |
उन्हें तक़लीफ होती है तो वे दर्द बाँट नही सकती |
दर्द बाँटने जाती है तो और दर्द मिलता है |
सीढियों का काम सिर्फ़ चढाना होता है|
मंजिल पर पहुचाने का कम वो बखूबी करती है |
वो तो देख भी नही पाती i की उनका राही कहा पहुंचा है
सिर्फ़ उतरने की पदचाप से राही का अंतर्मन पहचानती है|
उन्हें सुस्ताने को जगह देती है |
फिर से नये राही को पहचानती है और अटल रहती है |
,

Sunday, July 20, 2008

स्पंदन


राधा का अर्थ है ...मोक्ष की प्राप्ति
'रा' का अर्थ है 'मोक्ष' और 'ध' का अर्थ है 'प्राप्ति'
कृष्ण जब वृन्दावन से मथुरा गए,तब से उनके जीवन में एक पल भी विश्राम नही था|
उन्होंने आतताइयों से प्रजा की रक्षा की, राजाओं को उनके लुटे हुए राज्य वापिस दिलवाये और सोलह हज़ार स्त्रियों को उनके स्त्रीत्व की गरिमा प्रदान ki
उन्होंने अन्य कईं जन हित कार्यों में अपने जीवन का उत्सर्ग किया उन्होंने कोई चमत्कार करके लड़ाइयाँ नही जीती,अपनी बुद्धि योग और ज्ञान के आधार पर जीवन को सार्थक किया मनुष्य का जन्म लेकर , मानवता की...उसके अधिकारों की सदैव रक्षा की
वे जीवन भर चलते रहे , कभी भी स्थिर नही रहेजहाँ उनकी पुकार हुई,वे सहायता जुटाते रहे|

इधर जब से कृष्ण वृन्दावन से गए, गोपियान्न और राधा तो मानो अपना अस्तित्व ही को चुकी थी
राधा ने कृष्ण के वियोग में अपनी सुधबुध ही खो दी,मानो उनके प्राण ही न हो केवल काया मात्र रह गई थी
राधा को वियोगिनी देख कर ,कितने ही महान कवियों ने ,लेखको ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही आदि संज्ञाओं की उपाधि दी
दे भी क्यूँ न????
राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें , वृन्दावन की वे कुंजन गलियां , वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते थे , वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वह की हवाओं में विद्यमान रहती हैराधा जो वनों में भटकती ,कृष्ण कृष्ण पुकारती,अपने प्रेम को अमर बनाती,उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा ...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाये ,किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नही सुना स्वयं कृष्ण को कहा कभी समय मिला की वो अपने हृदये की बात..मन की बात सुन सकेंया फिर यह उनका अभिनय था!


जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर प्रभास -क्षत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तो 'जरा' के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई तभी उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ,'राधा' शब्द का उछारण किया,जिसे 'जरा' ने सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वह पहुंचे..उन्हें सुनायाउद्धव की आंखों से आंसू लगता बहते जा रहे हैं ,सभी लोगों ,अर्जुन ,मथुरा आदि लोगो को कृष्ण का संदेश देने के बाद ,जब उद्धव ,राधा के पास पहुंचे ,तो वे केवल इतना कह सके ---
" राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ...
किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी"

कविता का शीर्षक आप सुझाइये'"खोज "

एक राहगीर अमराई में, आम ढूंड रहा था
एक शिक्षक कक्षा में, खास ढूंड रहा था
आम तो दलालों ने पकने रख दिए ,
और खास तो मोबाइल में व्यस्त हो गए|

एक मचुअरा तालाब में मछली ढूंड रहा था
एक पंडित मन्दिर में मूर्ति ढूंड रहा था,
तालाब की मछली ठेकेदार ले गए
और मन्दिर की मूर्ति विढेशी ले गए |

एक धार्मिक सत्संग में धर्म खोज रहा था
एक भूखा लंगर में रोटी खोज रहा था,
धर्म तो प्रवचन और कथाओं में घूम हो गया
रोटी तो चलते चलते दिल्ली पहुँच गई |

एक साधू जुनगले में शान्ति धुंध रहा था
और में टीवी समाचार में , समाचार खोज रही थी,
साधू की शान्ति तोह पर्यटक ले गए
और मैं समाचार सुनकर मुर्छित हो गई||
आस्था ने बहुत सुंदर शीर्षक भेजा है
तो कविता का शीर्षक है ,
"खोज "
धन्यवाद आस्था

Wednesday, July 16, 2008

सुखद अनुभूति

मेरे जीवन की सुखद अनुभूति प्रथम दर्शन शिर्डी के सई बाबा मंदिर में थी|