Thursday, July 22, 2010

जान लेवा .....सच क्या है ??

अख़बार पढो या टेलीविजन पर समाचार देखो ?ऐसा लगता है बस अभी ही अपनी जान चली जायगी |प्रलय मे डूबतीधरती एक चैनल कब से प्रचारित कर रहा है लगता अब तो बस कुछ ही सांसे बची है बाकि तो सब जानलेवा ही है
-- पानी जान लेवा ?
ढूध जान लेवा ?
घी जान लेवा ?
सब्जी जान लेवा ?
फल जान लेवा ?
मसाले जान लेवा ?
दवाई जान लेवा ?
इजेक्शन जान लेवा ?
शहरों का ट्रेफिक जानलेवा?
मौसम जान लेवा ?
बिजली की कटोती जान लेवा ?
स्कूली बसे जान लेवा ?
गर्मी जान लेवा ?
बरसात का न आना जान लेवा ?
और भी कितनी जीवनदायिनी चीजे है जो आज जान लेवा बनती जा रही है पर कम्बखत जान है की इन सबको हँसते हँसते झेल जाती है |जब जब जानलेवा चीजो पर छापा पड़ता है टनों से पकड़े नकली फल ,नकली दूध और दूसरे सामान किसको अर्पण होते है ?किसी को नहीं मालूम ?और इनके पकड़ने से बाजार में भी कोई कमी नहीं रहती ?
यत्र तत्र ठेलो पर भरपूर" जान
लेवा "फल मिलते है
भोग भी लगता है ,ठाकुर को, अभिषेक भी होता है और हम भी खाते है पीते है आराम से क्या करे ?
देखिये जान अभी भी बाकि है | मेरे लिए तो जान लेवा और ही कुछ है जैसे -
करोड़ो का गेहू हर साल गोदामों में रखे रखे सड़ जाना |
शादियों में बेहिसाब खाना बर्बाद होना |
इसी क्रम में अभी अभी एक संस्मरण पढ़ा जो अप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ |

वो दिन
-ब्र .ध्यानाम्रत चैतन्य
"विश्व का आलिंगन "का पुराना वीडियो (१९९८ )देखते समय कुछ पुरानी यादे उभर आई |तब मै अमृत कुटीरम योजना के स्वयम सेवक दल में था |
इस योजना में गरीबो को २५ हजार आवास निशुल्क दिए जाने का लक्ष्य था |
योजना के प्रथम चरण में हार आवेदक के घर में जाकर जाँच करनी थी की कौन सुपात्र है और कौन अपात्र ?
इसके बाद सुपात्रो के बीच प्राथमिकता तय करनी थी की किसे आवास पहले वर्षो में मिलनी थी और किसे बाद के वर्षो में |निर्माण कार्य भी उसी हिसाब से होना था |
कई स्थानों पर आवेदकों के पते पर पहुचना कठिन रहा \परन्तु एक प्रसंग मेरे लिए अविस्मर्णीय बन गया |उस प्रकरण में तो स्थानीय लोग भी ये बताने में असमर्थ रहे की की आवेदिका कहाँ रहती है |
आखिर उसका आवेदक मिल ही गया जिसने हमको उस आवेदिका तक पहुँचाया|आवेदिका ७० -७५ साल की एक वृद्ध महिला थी |वह बहुत ही कमजोर थी वह एक कटहल के पेड़ के साथ ५-६ ताड़ के पत्तो की छाँव बनाकर उसके नीचे रहती थी |उसने एक मैला सा कपड़ा अपने शरीर पर लपेट रखा था \वह इतनी कमजोर और पीली थी की उसका चेहरा भावशून्य हो गया था |ऐसी लग रही थी मानो कोई पत्थर की दोनों घुटनों में अपना सर झुकाकर बैठी हो |
अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए हमने उसके परिवार की जानकारी के लिए पूछताछ की \उसका नाम कथू था |उसके तीन बच्चे थे |५० वर्षीय बड़ा लड़का मानसिक रूप से असंतुलित था |वह किसी से बात नहीं करता था |वह भी एक कटहल के पेड़ के नीचे ताड़ के पत्तो की छाया में रहता था |काम कुछ नहीं करता था बस दिन भर पड़े रहता था |
दूसरी एक लडकी थी जिसे शादी के बाद पति ने छोड़ दिया था उसकी समस्या ये थी की वह दूसरो को दिन भर गाली बकती रहती थी कोई भी उसे सहन नहीं कर पता था \तीसरा लड़का चालीस वर्ष का था उसका भी दिमाग कुछ असंतुलित था पर बडे के मुकाबले कुछ कम वह काम करके कुछ पैसा कमाता था पर घर पर कम ही देता था |चंद्रमा की कलाओ की तरह उसका दिमाग भी बदलता रहता था |
जानकारी लेने के बाद हमने कथू से पूछा ?
क्या तुमने भोजन कर लिया ?
उसने खा -" नहीं, यहाँ खाने को है क्या ?"
-सबेरे का नाश्ता ?-नहीं
-कल खाया था ?-उसने फिर कहा- नहीं |
-कब खाया था ?
उसने कहा -पिछले सप्ताह कुछ प्याज खाए थे जो मेरा छोटा लड़का शादी की झूठन से उठाकर लाया था |
यः सुनकर हम लोगो के मन को एक गहरा आघात लगा |मैंने गरीबी के बारे में सुना था पर ऐसी दशा की कभी कल्पना भी नहीं की थी |हमारे साथ एक राजनितिक कार्य करता भी था जो लोगो के पते ढूंढने में हमारी मदद कर रहा था |उसे भी इस परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी |जबकि वह इसी सडक के किनारे थोडा आगे चलकर रहता था \
हमारे दल का एक सदस्य कुछ चावल और सब्जी खरीद कर ले ए और बुढिया माँ को पकाने को दे दिया |वह बड़ी मुश्किल से खड़ी हो पा रही थी एक बर्तन लेकर जाने लगी हमने पूछा कहा जा रही हो ?
उसने कहा -घर में पानी नहीं है करीब १०० कदम नीचे चलकर जाना होगा |रोज पानी मेरा छोटा लड़का लाया करता है |तब हम जाकर पानी लाये उसके पास चूल्हा जलाने को माचिस भी नहीं थी वो हमारे साथी के पास थी ,हमने चूल्हा जलाया और पानी गर्म करने को रखा |
इस बीच हमने कथू का नाम प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखा और अगले आवेदक को खोजने निकल पड़े |
उस रात मै सो नहीं सका |कथू और उसके परिवार के बारे में सोच सोच का मुझे रोना आ रहा था कथू की दयनीय दशा उसकी लाचारी ,उसके बछो की दिमागी हालत !एक दिन क्या एक सप्ताह तक मुझे रोना आता रहा |जब भी मै कुछ खाने को बैठता मुझे कथू का चेहरा सामने घूम जाता |
मै सोच भी नहीं सकता था की १०० प्रतिशत साक्षर ता वाले प्रदेश केरल में किसी गरीब की ऐसी दुर्दशा हो सकती है |
बाद में कथू का मकान सबसे पहले बनाया गया स्थानीय लोगो ने भी कार्य पूरा करने में सहायता की |
इतनी निपट गरीबी मैंने इसके पूर्व नहीं देखी थी |जब अम्मा गरीबो की सहायता करने को कहती तो मै कहता था की
अच्छा विचार है \जब अम्मा कहती - अन्न पानी बर्बाद मत करो तो मुझे यः मितव्ययिता के किये दी गई सीख मालूम होती |दिल दहला देने वाले ऐसे कटु सत्य की तो मै कल्पना भी नहीं कर सकता
उस दिन मेरी आँखे खुल गई |जीवन में पहली बार मै किसी के लिए रोया था -अम्मा ने मेरे करुणा नेत्र खोल दिए थे |
-ॐ -
साभार
"मात्र वाणी "
मासिक पत्रिका
माता अमृतानंदमायी मिशन ट्रस्ट
(पोस्ट )कोल्लम ६९०५२५ ,केरल


Sunday, July 18, 2010

"नीम की डाली "कहानी

आज जैसे ही सुबह रसोई में आई सुमित्रा ने देखा -रीमा ने प्रियम का टिफिन तैयार करके रख दिया था |सुमित्रा कोआश्चर्य हुआ ! बजे प्रियम को आफिस जाना है और .३० बजे ही टिफिन तैयार |उसने भी कुछ नहीं पूछा और अपनेलिए चाय बनाने लगी ,जैसे ही उसने गैस जलाई पीछे से रीमा आई और सुमित्रा को कंधे से पकड़कर बड़े प्यार से कुर्सीपर बैठा दिया और कहने लगी -मम्मीजी आप आराम से बैठिये मै आपकी चाय बना कर लती हूँ |सुमित्रा भी सोचनेलगी मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ?की सुबह उठते ही मुझे चाय तैयार मिल जाय रसोई में भी कुछ करना नहीं है ,बहू ने भी खानेकी सारी तैयारी कर ही ली है चाय बनाते बनाते ही रीमा वहां से कहने लगी -मम्मीजी आपकी और पापाजी की रोटियाबना कर रख दी है \आपको कुछ भी नहीं करना है बस दिभर आराम करना है |
रीमा जानती है पापा ठंडी रोटी नहीं खाते फिर क्यों ?बना डाली रोटिया ?सुमित्रा ने सोचा, फिर विचारो को झटक दियाऔर खुश हुई चलो मुझे और समय मिल जावेगा आज मै अपनी अधूरी पेंटिग पूरी कर लूंगी |और प्रियम के पापा भीठंडी रोटी खाने की आदत डाल लेंगे |
सुमित्रा अपनी चाय लेकर अपनी अपनी पेंटिग पूरी करने के इरादे से अपने कमरे में पहुँच गई |
पेंटिग करते करते वो सोचने लगी यह काम ख़त्म करके छुटकी को नहला धुलाकर तैयार कर दूँगी उसे खाना खिलाकरदिन भर उसके साथ खेलना ,उसकी छोटी छोटी मुस्कानों के साथ बड़ी बड़ी ख़ुशी मिलना ,कितना अच्छे से समयनिकल रहा था मानो जीवन में फिर से बहार गई हो ?
प्रियम के पापा जब रिटायर हुए थे तो सुमित्रा यही सोचती थी परेशान होती थी की कैसे कटेगा आगे का जीवन ?दोनोंबच्चे दूर अपनी अपनी नौकरी के कारण बस गये थे |हमारी सारी रिश्तेदारी यही छोटे से शहर में थी ,प्रियम के पापातो कही जाना ही नहीं चाहते थे थे उन्हें तो अपने रिश्तेदारों से ही ज्यादा लगाव था पर सुमित्रा उन्हें छुटकी के मोह मेंपकड़कर ले आई थी ||नन्ही छुटकी (नमिता )जब तुतलाकर दादी कहती तो मानो सारा स्वर्ग उसकी गोद में सिमटजाता |नमिता के बचपन में अपने बच्चो का बचपन खोजकर सुमित्रा सुख से भर जाती |
मन ही मन कहती सुमित्रा -जब भोपाल वापिस जाउंगी तो पडोस वाली दीदी को कहूँगी आपकी बहू दुराव छिपाव करतीहोगी ?मेरी बहू तो मुझे हाथो हाथ रखती है |रसोई भी मेरे लिए पूरी की पूरी खुली है जो चीज चाहे इस्तेमाल करू ?
अलमारिया भी खुली है (हाँ ये बात और है की मैंने अलमारियो को कभी हाथ नहीं लगाया )अभी मुझे आये दिन ही कितने हुए है !एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है |इतने दिनों में प्रियम की सारी पसंद की चीजे बना डाली रसोई में !रीमाकी पसंद की भी डिशेज बना डाली मै खुश थी! चलो रीमा को भी मेरे हाथ का बना खाना अच्छा लगा |और इसी उत्साहमें सुबह -सुबह उनके उठने के पहले दी दोनों का लंच और नाश्ता तैयार कर देती |पहले प्रियम जाता ,रीमा बाद मेंआफिस जाती |मेरे आने से रीमा को थोड़ी तो राहत मिली रसोई से और दुगुने उत्साह से शाम को खाना बनाने कीतैयारी में जुट जाती \
नमिता के साथ खेलना ,पेंटिग बनाना और बालकनी में लगे गमलो के पौधो को ठीक ठाक कर नए पोधे लगाकरसुमित्रा बहुत खुश हो रही थी |जीवन को जैसे पंख लग गये थे |
जिस बिल्डिंग में प्रियम का यः फ़्लैट था ठीक उसके सामने एक बहुत बड़ा नीम का पेड़ था और उसकी एक डालीसुमित्रा के बेडरूम की खिड़की के पास लहराती दिखती, सुमित्रा सोचती मेरी जिन्दगी भी ऐसे ही लहरा रही है |
बहुए इतनी अच्छी होती है ?बेकार में ही बड़ी दीदी (नन्द )अपनी बहू की बुराई करती रहती है की कैसे उनकी बहू कोउनका रसोई में आना बिलकुल भी पसंद नहीं था उनकी बहू अपने बच्चो की परवरिश में दीदी को कभी शामिल नहींकरती ऐसे व्यवहार करती मानो दीदी ने तो बच्चे पाले ही नहीं |तबसुमित्रा को भी भी बहुत दुःख होता और वो महसूसकरती शायद दीदी की भी कोई गलती होगी |और उन्हें ही समझाती |
पडोस वाली शर्मा भाभी आती उनकी शिकायत रहती की उनकी बहुए तो उनसे कभी बात ही नहीं करती ?
खाने के समय बच्चो को बुलाने भेज देती ?वैसे भी हमे तो कितना परहेजी खाना खाना पड़ता है|
शर्मा भाभी कहती !
और उससे भी ज्यादा परहेज हमसे हमारी बहुए करवाती है |नाश्ते के डिब्बे भरे रहते है पर क्या मजाल ?जो हमे प्लेटमें कभी दे दे |मेहमान आते टेबल पर नाश्ता लगा होता ,पहले ही बहुए कह देती मम्मीजी को तो ये सब चीजे मना है |
शर्मा भाभी रुआंसी सी हो जाती कहती -कितना नियंत्रण करे ?तुम्हारे भैया होते तो क्या हमारी हालत ऐसी होती ?
उनके सामने क्या बहुए ऐसी शेरनी होती ?सबकी परेड ले लेते ?आँखों में आये आंसुओ को पोंछते हुए कहती - सुमित्रादीदी -बहुए तो पराये घर से आई है !वे ऐसा करती है तो इतना दुःख नहीं होता ,पर मेरे पेट के जाये ही मेरे विरोधी होगये तो अपना दुःख किससे कहू ?
खैर सुमित्रा दीदी आप तो अपने बेटे के पास रहिये पर एक बात अभी भी कहती हूँ ?अपना घर बिखरने नहीं देना |
यहाँ की सूखी रोटी भी अमृत है |
फिर आपके साथ तो जीजाजी है तो ठीक है आप अकेली तो नहीं है ?
अच्छा चलती हूँ वरना उनकी (बहू की )आँखों में अनेक प्रश्न होंगे ?मुझे शर्मा भाभी पर दया आती और उनकी पसंद कीकोई चीज बनाकर उन्हें खिला देती |
आज सुमित्रा ने पेंटिग पूरी कर ली थी और सभी सामान समेट कर रखा |शाम की चाय लेकर वो बैठी और अपने पतिसे कहने लगी -सुनो जी मेरी इच्छा है की मै एक प्रदर्शनी लगाऊ ?मेरे पास काफी पेंटिग्स हो गई है |
मेहताजी ने पत्रिका में से सर निकालकर चश्मे में से आँखे तरेरते हुए कहा -अब इस उम्र में ये सब नाटक करोगी ?क्यातुम्हे बचपना सूझ रहा है ?पेंटिग बनाना तक तो ठीक है भई!घर में बैठकर अपना शौक पूरा कर लिया |अब क्याइनको लेकर दुकान लगाओगी ?
अपने बच्चो के साथ शांति से रहो |
ये सब फालतू बाते अब नहीं करना और दिमाग से भी निकाल दो इन्हें |
सुमित्रा की चाय का मजा ही किरकिरा हो गया ,वो चुपचाप नमिता को लेकर बालकनी में चली गई और नीचे खेलतेहुए बच्चो को देखने लगी या यू कहो?वहां जाकर अपने आंसू पोछने लगी \
सुमित्रा शादी के पहले से ही सुन्दर गाना गति थी उसने विधिवत शिक्षा भी ली थी पर मेहताजी के परिवार में इनसबकी कोई जगह नहीं थी फिर पेंटिंग उसका दूसरा शौक था |परिवार कुटुंब
की देखभाल में रंग और ब्रश कहाँ खो गये पता ही चला |कुछ सालो पहले एक टी वि कार्यक्रम से प्रेरित होकर उसनेअपना शौक आगे बढ़ाया तब भी मेहताजी ने काफी विरोध किया था पर इस बार उनकी दलीले ज्यादा काम नहीं करपाई थी
तब सुमित्रा ने उसे आगे बढाया और वो ज्यादा ही इन पेंटिग्स को लेकर उत्साहित हो चली थी |पर उसे क्या पता थाकी उसकी कला का इस घर में कोई क़द्र करने वाला नहीं है |फिर उसके मन में ख्याल आया की शाम को प्रियम से बातकरूंगी |शायद अपनी माँ के इस शौक को पूरा करने में वो उसकी मदद करे |और इसी आशा के साथ घर के सारे कामनिपटाने में जुट गई |आज उसने सबके लिए पानी पूरी बनाई थी |
रात सबने अच्छे से पानी पूरी और छोले भठूरे खाए |खाने के बाद सब लोग टी.वि .देख रहे थे तभी सुमित्रा ने सोचाअभी ठीक समय हैप्रियम से पूछने का ?क्योकि प्रियम के सामने उसके पापा ज्यादा बोल नहीं पाते ?
उसने प्रियं से पूछ ही लिया बेटे !मै सोच रही हूँ ये बड़ा शहर है क्या मै यहाँ अपनी पेंटिग्स की प्रदर्शनी लगा लू मैंने एकआर्ट गैलरी में बात भी कर ली है ?अभी १५ दिन के लिए गैलरी फ्री है |उसके बाद तो महीनों तक बुक है |
कमरे में ज्यादा उजाला नहीं था प्रियं और रीमा के चेहरे के भावो को वो देख नहीं पाई |परन्तु प्रियं ने इतना जरुर कहाहाँ माँ मै कोशिश करता हूँ ?इतने में ही सुमित्रा को बल मिला |
दुसरे दिन सुबह सुमित्रा के कमरे के बाहर निकलने के पहले ही रीमा ने खाना बना लिया था और टिफिन तैयार कररख लिए थे |
साथ ही प्रियम ने कहा - मम्मी आज शाम को आप खाना नहीं बनाना आज से खाना बनाने वाली बाई आवेगी |
सुमित्रा और खुश चलो !प्रियम ने मेरी बात को महत्व तो दिया शायद वो चाहता है की मै और समय का सदुपयोग करअपनी पेंटिग्स पूरी करू |
सुमित्रा दिन भर योजनाये बनती रही प्रदर्शनी लगाने की \शाम को प्रियं आया कितु उसकी ये पूछने की हिम्मत नहींहुई की बेटा -तुमने कुछ पता किया क्या ?
उसने सोचा दिन भर काम का टेंशन और अभी मैंने कल ही तो कहा है -दो चार दिन तो लगेगे ये सोचकर सुमित्रा भीसोने चली गई |ऐसे ही दो चार निकल गये | ?
- अब तो रोज ही रीमा खाना बना लेती साथ ही नमिता को भी नहला धुला कर तैयार कर देती बाकि काम के लिए भी बाई थी ही \शाम को भी कुछ काम नहीं होता सुमित्रा ने सोचा चलो आज सब्जी ही ले आऊ उसने मेहताजी को कहा - चलो थोडा घूम भी लेंगे और फल सब्जी भी ले आवेंगे |
मेहताजी ने कहा -नहीं तुम ही जाओ |
फिर सुमित्रा ने भी ज्यादा कुछ नहीं कहा -और अकेले ही चल पड़ी |
थोड़ी
देर बगीचे में बैठी रही |सब अनजाने लोग बस थोडा सा मुसुकरा भर देते मानो उसके भी पैसे लगते हो |
उसका मन नही लगा फिर सब्जी खरीदी और घर चल दी |दूसरी मंजिल पर ही घर था लिफ्ट आएगी उसके पहले ही मै पहुंच जाउंगी और थोड़ी सीढ़िया भी तो चढनी चाहिए ?अपने आपको इतना भी आरामी जीव नहीं बनाना यही सोचते अपने फ़्लैट के पास दम लेने रुकी तो देखा ! दरवाजा खुला है और रीमा और प्रियं के पापा चाय पी रहे है \दोनों की पीठ दरवाजे पर थी और आपस में बात कर रहे थे |रीमा की आवाज थी
पापाजी
आप मम्मी को रोकते नहीं है इस उम्र में ये इच्छाए ?और ये पेंटिग जो किसी को समझ नहीं आती ?कही गोल कही चोकोर /अरे फूल पत्ती हो तो /इन्सान हो तो बात भी ?और मुहं दबाकर हंसने लगी \और प्रियम के पापा उसकी बात का समर्थन कर रहे थे |
सुमित्रा के पैरो तले की जमीन खिसकने लगी थी उसकी कनपत्तियो में मानो आग सी लगी हो ?
किसी तरह अपने को संयत कर उसने घर में प्रवेश किया मानो कुछ सुना ही हो और रीमा से कहा - अरे बाप बेटी ही चाय पियोगे या मुझे भी पिलाओगे |
रीमा चहक कर बोली -अरे वाह! मम्मीजी आप तो इतनी अच्छी और ताजी सब्जी ले आई |
आप थक गई होंगी -मै आपके लिए अभी चाय बनाकर लाती हूँ |और सुमित्रा के हाथ से थैला लेकर चली गई |मानो कुछ हुआ ही हो ?मेहताजी सुमित्रा से आंखे चुरा रहे थे उसने भी नमिता को आवाज दी और गोद में उठाकर उसे प्यार करने लगी |
उसके जेहन में ख्याल आया कोई इतना अच्छा कलाकार कैसा हो सकता है ?
रंगमंच पर तो सभी एक्टिंग करते है उन्हें मालूम होता हैउन्हें मालूम होता है की हमे ये किरदार निभाना है वो उसमेरमकर उसे स्टेज पर जीते है |परन्तु उसके अपने घर की बगिया में ऐसा मंचन ?
शायद
ठीक ही तो है ,मैंने भी तो अभिनय ही किया ?मैंने क्यों नहीं रीमा और प्रियम के पापा की बातो का प्रत्युतर दियाशायद घर में कलह क्लेश हो ?
? इतने में रीमा चाय ले आई |मैंने उसे प्यार से धन्यवाद दिया और चाय पीने में लग गई |सुमित्रा ने सोचा अब प्रियम सेप्रदर्शनी की बात करना व्यर्थ है |
बात
करू या करू ?इसी पशोपेश में सुमित्रा ने तय किया रात के खाने के बाद प्रियम से बात करूंगी |
सुमित्रा
विचारो के भंवर जालमें उलझती जा रही थी मुझे इतनी सी छोटी बात के लिए रीमा को दोषी नहीं माननाचाहिए ? अभी छोटी ही तो है उसे अभी कहाँ जीवन का अनुभव है ?
मुझे
इतना विचलित नहीं होना चाहिए ?मुझमे यही कमी है! छोटी सी बात पर निर्णय लेने की क्षमता त्याग देती हूँमेरा स्वभाव ही ऐसा है की मै ज्यादा ही सोचती रहती हूँ |सुमित्रा की गोद मेही नमिता सो गई थी |उसने सोचा इसेरीमा के कमरे में ही सुला दू | इस बीच प्रियम भी गया था वह नमिता को लेकर रीमा -प्रियम के कमरे की ओर गईपर उसे बाहर ही ठिठक कर खड़ा होना पड़ा |रीमा प्रियम से कह रही थी मम्मी पापा और कितने दिन रहेंगे ?
| प्रियम ने कहा -जब तक उनकी इच्छा होगी रहेंगे |
मुझे
तो ऐसा लगता है जैसे वो अब सारी जिन्दगी यही रहेंगे तीखे स्वर में रीमा बोली ..
तुम
ही तो उन्हें हमेशा फोन पर कहती थी जाओ |सुमित्रा को वो सब याद हो आया !जब भी त्योहारों पर प्रियमरीमा भोपाल आते प्रियम कभी भी मुंबई आने को नहीं कहता |हमेशा रीमा ही घुमा फिराकर कहती मम्मी पापा हमारेपास भी रहने को आओ ?और मै उसके इस निमंत्रण पर गदगद हो जाती \
तुम्ही
ने तो उन्हें आग्रह करके बुलाया था |
वो
लोग सचमुच जावेंगे मैंने ऐसा थोड़े ही सोचा था और आजवेंगे तो यहीं जम जावेंगे क्या ?प्रियम की बात कारीमा ने जवाब दिया \
मैंने
उनका किचन में भी जाना बंद कर दिया, नमिता की देखभाल के लिए मै कर ही रही हूँ ,और अब ये पेंटिग काचक्कर चलाकर यही रहना \चिढ़कर रीमा बोले ही जा रही थी |
प्रियम
उससे कह रहा था धीरे बोलो -पापा मम्मी सुन लेंगे |
सुमित्रा
नमिता को लेकर अपने कमरे मेंआकर पलंग पर बैठ गई उसके आंसू थम ही नहीं रहे थे |उन्ही आंसुओ मेंदीदी ,शर्मा भाभी बार बार नज़र रही थी |उसके हाथ पांव सब सुन्न से हो रहे थे |उसने अपनी बी. पि .की दवाई लीऔर सोने की कोशिश करने लगी |
नमिता
को बगल में ही सुला लिया मेहताजी अभी भी आराम से टी.वि. देख रहे थे ,सिर्फ टूटन महसूस की थी सुमित्रा नेअपने ही विश्वास की |
सुमित्रा
पलंग पर लेटी थी -प्रियम कमरे में आया और नमिता को उठाकर धीरे से से पूछा ?
मम्मी
खाना नहीं खाएगी क्या आप ?
सुमित्रा
ने आँखे बंद किये ही जवाब दिया -नहीं बेटा आज भूख नहीं है |
अच्छा
|कहकर प्रियम नमिता को लेकर बाहर चला गया |
सुमित्रा
को लगा ये कमरा ,ये पलंग ,इस कमरे की हर वस्तु उसे डंक मार रही है ,और घड़ी की सुई मानो आगे ही नहींसरक रही है |
प्रियम
के पापा कब आकर सो गये उसे अहसास ही नही हुआ |उनके खर्राटो से जब सुमित्रा की तन्द्रा टूटी उसे प्यास सीमहसूस हुई पर आज सोने के पहले वह पानी नहीं लाइ थी पर उसकी इच्छा नहीं हो रही थी किचन में जाकर पानी पीनेकी
थोड़ी
देर में प्रियम के पापा ने पानी माँगा तो सुमित्रा को उठाना ही पड़ा पानी लाने के लिए |किचन से पानी लेते समयउसे ऐसा लग रहा था मानो वह बहुत बड़ी चोरी कर रही हो ?वह पानी लाई प्रियम के पापा को दिया परन्तु फिर भीउसने खुद पानी नहीं पिया |
जैसे
तैसे रात गुजारी सुबह उठकर नहा धोकर जैसे ही खिड़की के बाहर देखा :वह नीम की डाली अपनी शाखा से उखड़गई थी और उसके हरे से पत्ते पीले पड़ गये थे .................

Tuesday, July 13, 2010

सकारात्मक सोच

थोडा सा बुखार ,कभी सर दर्द ,कभी हाथ पांवो का दर्द ,घुटने का दर्द तो लगा ही रहता है ,और मै इन्ही दर्दो को लेकर हमेशा दुखी होती रहती हूँ |मेरी एक सहेली तो बस इसलिए दुखी होती रहती है कि उसकी तबियत के हाल घर में कोई पूछता ही नहीं ?और बेवजह उदास रहने लगी है |
"इनको इतनी तकलीफ है तो ये घर में क्यों नहीं रहती घूमने का ज्यादा ही शौक है "ये वाक्य हमारे एक सहयात्री ने एक महिला ने भोजन प्रसाद (आश्रममें यही कहते है )लेने के पहले करीब १० से १२ टेबलेट ली |उनको देखकर कहा |वो महिला अपनी समवयस्क महिलाओ के साथ दुसरे टेबिल कुर्सी पर थी जो थोड़ी दूर थी ,इसलिए वो सुन नही पाई |
कुल सात महिलाये ६५ +थी उम्र में और सभी सभ्रांत लग रही थी |
मुझे बड़ा अटपटा सा लगा अपने सहयात्री का इस तरह का वक्तव्य एक महिला के लिए !
भोजन
शाला में बातचीत नहीं की जा सकती थी अत:मै चुप रही |
पिछले
दिनों हम उतराखंड में लौह्घाट से किलोमीटर की दूरी पर स्थित मायावती में रामकृष्ण मठ द्वारा संचालित अद्वैत आश्रम गये थे |
साँझ को हम लोगो की उन्ही महिलाओ से भेंट हुई उन्ही महिला ने रात्रि भोजन के पहले इंसुलिन लिया साथ में मेरी मित्र ने आश्चर्य प्रकट किया उनके इंसुलिन लेने पर |उन्होंने तपाक से जवाब दिया- ये मुझे फिट रखते है मेरे कार्य में कोई बाधा नहीं डालते और मै दिन में १२ घंटे अच्छी तरह से काम कर सकती हूँ अगर मै नियमित दवाई लेती हूँ तो ही ?
मेरी मित्र और हम सब एक दूसरे का मुहं ताकने लगे और फिर परिचय जाना \दरअसल वो सब रिटायर्ड डॉक्टर थी और कोलकाता से यहाँ आई थी |आश्रम द्वारा संचालित अस्पताल में हर साल शिविर लगाये जाते है जिसमे महिला रोग निदान ,शिशु रोग निदान ,दांतों की चिकित्सा आदि आदि |जिसके लिए सेवाभावी सभी डाक्टर इतनी दूर से पहाड़ो पर आती है और निस्वार्थ सेवा तन मन और धन से करती है |जो की आसपास की पहाड़ी महिलाओ के लिए वरदान साबित हुई है |
सभी डाक्टर इतनी विनम्र और सह्रदय थी की उन्हें मिलकर उनका इस उम्र में भी ये जज्बा देखकर श्रधा से हमसभी नतमस्तक हो गये |
कुछ दवाइयां कितनी महत्वपूर्ण होती है हम अपने आधे अधूरे ज्ञान से उसको समझ नही पाते ?
मायावती की साइड का लिंक है |
मायावती की अधिक जानकारी यहाँ से प्राप्त हो सकती है |
http://www.belurmath.org/centres/display_centre.php?centre_id=MYV






भोजन शाला

Monday, July 12, 2010

मंगल गीत

सप्तपदी के समय
सबने कहा था .....
जोड़ी अच्छी है
"बन्ने "की शान के
गीतों को
अपना "आदर्श "
बना बैठे
उन पर
अपना आधिपत्य
जमा बैठे
तुम
तुम्हारे "यूज एंड थ्रो "की
मानिंद
व्यवहार को ,
सस्ता रोये बार बार
"मंहगा "रोये एक बार
को
अब तक
संभालती रही
मै
एहसान या भीख
में मिली
समानता नहीं ?
फेंके गये
अस्तित्व को
उठाकर
मंहगे सौदे को
छोड़कर
अनेक रास्तों की
यात्रा पर
निकल पड़ी हूँ
मै
रोटियों की खुशबू
मुझे अब भी
भाती है |

Monday, July 05, 2010

रिश्ते की आस

बहुत तपिश होती है
मन में
सिर्फ
तुम्हारे ख्याल से ही
ठंडी फुहार
बरसने लगती है ..

मन में होते है
अनेक बोझ
तुम्हारी आँखों में
विश्वास देखकर
बोझ उतरते से लगते है..

बहुत दूर हो
सिर्फ
तुम्हारे
एहसास से
खुशिया बिखरी है
आसपास
..

रिश्तो की कैसी
ठेकेदारी है ये ?
रात आँख भी नहीं लगी
और तुम पूछते हो
सब ठीक है न ?