Tuesday, August 31, 2010

"डाक्टरनी जीजी "

डाक्टर साहब के क्लिनिक पर मरीजो की लाइन लगी थी ,बारिश तो बहुत नहीं हुई थी |पर उससे होने वाली बीमारिया
अपने नियत समय पर आ गई थी |मै अपनी एक रिश्तेदार को लेकर डाक्टर के पास लेकर गई थी उन्हें काफी बड़ी बड़ी फुन्सिया हो रही थी |काफी घरेलू उपचार भी किये पर कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था |बहुत सोचा किसे दिखाए ?आसपास बड़े बड़े अस्पताल है इतनी छोटी चीज के लिए वहा जाना ?
फिर ब्लड टेस्ट ,एलर्जी टेस्ट ये सब सोच कर हमारे पारिवारिक फिजिशियन को बताना ही उचित समझा |डाक्टर साहब बहुत सह्रदय है (वो इसलिए की सिर्फ उनकी फीस 50 रूपये है )और वहां मजदूर ,सब्जी फल बेचने वाले ,और हमारे जैसे लोग ही जाते है |हमारा नम्बर आया तो देखा की एक महिला पेट दर्द की शिकायत से परेशान थी |डाक्टर साहब ने उसे दवाईयों के साथ हिदायत दी की ,मूंग दाल की खिचड़ी खाना ,अगले दो दिन और आराम करना |
डाक्टर साहब इंजेक्शन लगा दो न ?
आराम करूंगी तो पैसा कहाँ से आवेगा ?
पहले ही चार दिन के पैसे कट जावेंगे |
फिर मूंग दाल की खिचड़ी ?डाक्टर साहब चावल खा लू तो नहीं चलेगा क्या ?
दाल तो १०० रूपये किलो है |
डाक्टर साहब ने कहा ठीक है खा लेना |
डाक्टर साहब ने उससे सिर्फ २५ रूपये ही लिए |
हमने भी दिखाया उन्होंने दवाई भी दी और उससे दो ही दिन में फायदा भी हो गया |
कितु मेरे मन में बार बार यही विचार कोंधता रहा की की दाल? भी एक गरीब आदमी नहीं खा सकता ?
करीब एक साल से इतना ही भाव चल रहा है और न जाने कितने ही लोगो ने दाल भी खाना छोड़ दिया होगा ?
बहुत से लोग सोचते है !की इन गरीबो पर क्या दया करना ?इन्हें तो घर घर से खाना मिल जाता है कपड़े मिल जाते है
इनका क्या खर्चा ?इनका रहन सहन का तरीका भी ऐसा है की इन्हें घर या झोपडी में क्या खर्चा ?इन्हें कपड़ो के साथ दीपावली पर कितना सामान मिल जाता है ?
कितु क्या ? बासी कुसी खाने से इनका स्वस्थ रहना संभव है? फिर रोज कोई इन्हें खाना थोड़ी न देता है जो बचता है वो भी फ्रिज में रखने के बाद हम देते है |
डाक्टर साहब का भी अपना घर बार है यहाँ तक पहुंचने में ही उन्हें कई संघर्ष करने पड़े होंगे ,ये अलग बात है |
मुझे अपना बचपन का गाँव याद आ गया हमारे गाँव में एक सरकारी अस्पताल था\वहां पर डाक्टर साहब की पोस्टिंग थी |
सुबह डाक्टर साहब अस्पताल में बैठते जिसकी उन्हें तनखाह मिलती थी |शाम को या दिन भर कभी भी कोई मरीज आते तो उनसे फीस लेते |ओर बाकि समय हिंद पाकेट बुक्स से मंगाई गई उस जमाने कि लोकप्रिय उपन्यास पढ़ते |और उनकी इस घरेलू लायब्रेरी योजना का गाँव का हर व्यक्ति पूरा उपयोग करता |और इसी बीच गाँव में शहर से छुट्टियों में आए लोगो से भी मुलाकात करते और साथ में चाय का दौर भी चलता जो कि डाक्टरनी जीजी( हाँ यही नाम प्रचलित था उनका सबके बीच )निरंतर रसोई से भेजती रहती \मुझे आज भी याद है मिटटी के चूल्हे के पास बैठी हुई उनकी छबी |गोरा सा मुख, लम्बीसी तीखी नाक, माथे पर चवन्नी जितना बड़ा लाल कुमकुम का टीका ,सर पर ढंका आंचल |चूल्हे के एक तरफ पीतल का चाय पतीला चढ़ा ही रहता और एक तरफ बड़े से पीतल के पतीले में दूध खौलता रहता |
दो भैस ,दो गाय का दूध ,सब डाक्टर साहब कि नज़र में न आए उनके मरीजो को पिला देती यह कहकर कि इतनी गर्म दवाई खाओगे तो और गर्मी बढ़ेगी शरीर में |उधर डाक्टर साहब दो रूपये (उस समय यही बहुत था गाँव में)फीस लेते इधर डाक्टरनी जीजी उनकी ऐसी सेवा कर देती |बदले में मरीज भी भेंसो का दाना पानी समय पर दे देते |
डाक्टरनी जीजी ने गाँव में रामायण पाठ शुरू करवा दिया था हर सोमवारको | जो पढ़ी लिखी महिलाये रहती वो पाठ करती बाकि सब महिलाये ध्यान से सुनती और सारी व्यवस्था लगा देती \गाँव का बहुत स्वरूप बदल गया कितु आज भी ५० साल पहले शुरू कि गई रामायण पढने कि सामूहिक प्रथा आज भी अनवरत चालू है |गाँव में जितनी भी उन दिनों सरकारी योजनाये आती बराबर उनमे सक्रियता से भाग लेती और गावं की महिलाओ को भी प्रोत्साहित करती और गावं की महिलाये उनका भरपूर सहयोग करती |इसमें सिलाई सिलाई सीखना .और आसान सी किश्तों में मशीन
खरीदना मुख्यत; शामिल था और सबसे कठिन था उन दिनों परिवार नियोजन के लिए गाँव में जाग्रति लाना |लडकियों को स्कूल भेजना |

भले ही इन कामो के लिए वे कभी भी पुरस्कृत नहीं हुई न ही कभी उनकी चर्चा हुई किन्तु जो जाग्रति के बीज उन्होंने बोये थे एक ग्रहिणी बनकर वे आज लहलहा रहे है |
आज भी मेरे मन में, मेरी हम उम्र भाई बहनों के दिल में ,कुछ गाँव के लोगो के मनमें उनके प्रति अपार श्रद्धा है ,क्योकि हम तो उन्हें सिर्फ गर्मी की छुट्टियों में ही मिल पाते थे जब गावं जाते थे
फिर उस जमाने की हम लडकियाँ शादी के बाद कहाँ इतना मायके और वो भी गावं जाना हो पता था ?
सिर्फ वो सुनहरी और अनमोल यादे ही हमारे पास शेष रह जाती है |
डाक्टरनी
जीजी जब भी शहर से कोई फिल्म देखकर आती महीनो तक उसकी कहानी, उनके पात्रो कि चर्चा करती रहती |उन दिनों गाँव से शहर जाना इतना आसान नहीं था ग्रामीणों के लिए विशेषकर महिलाओ के लिए जितना आज सुलभ हो गया है |
कालांतर में बहुत सारे डाक्टर आए किन्तु उस डाक्टर परिवार में जो विशेषताए रही वे बेमिसाल थी |
आज जब वो सारे दिन याद आते है !और आज के डाक्टर साहब और उनकी पत्नी को देखती हूँ तो डाक्टर साहब तो फिर भी दयावान हो जाते है ,पर श्रीमती डाक्टर? या सचमुच में वो खुद भी डाक्टर हो सकती है ?
उन्हें भी तो अपने बच्चो को डाक्टर बनाना है न ?
तो सेवा धर्म एक सपना सा लगने लगता है |

Sunday, August 29, 2010

"हार सिंगार कि महक "




गुलाब के आलावा और भी
बहुत कुछ है


हर साल
हमेशा


सफेद खिले चांदनी के फूल
कहते है मुझे

हम अनगिनत है
तौले नहीं जा सकते ?

हममे कांटे नहीं
बच्चे भी सहला ले हमे

मेरा भाई है भी तो है कनेर लाल है ,
पीला
है ,नारंगी ही



गूँथ लो हमे साथ साथ
साथ में चाहो तो गुडहल लगा लो
साथ
में चाहो तो तिवड़ा लगा लो
हम
है एक परिवार आते है
साथ
साथ रहते है साथ पर तुम तो गुलाबो के आदि हो गये हो क्या हुआ ? क्या कहा ? खुशबू नहीं है ? इतने में
हर सिंगार महक उठा मै तो हूँ खुशबू के लिए मुझे भी गूँथ दो साथ साथ अकेले मुरझा जाऊंगा मुझे अकेले रहने की आदत नहीं सारे फूल खिलखिला उठे एक ही माला में और मै गुलाबो की आरजू छोड़ महक गई हर सिंगार में |

कभी कभी शब्द ही नहीं होते आभार प्रकट करने के .....

बात शायद इतनी महत्वपूर्ण लगे ?किन्तु जीवन में कभी कभी अरे !कभी कभी क्यों ?हमेशा ही अच्छी बाते होती रहती है पर जयादा तर हमे कुछ थोडा सा बुरा ही याद रह जाता है और हम उसी का बखान किया करते है |अभी पिछले हफ्ते मै बेंगलोर से लौटी करीब ३३ घंटे कि रेल यात्रा करके, उज्जैन |उज्जैन से इंदौर बस से आना था जैसे ही स्टेशन के बाहर आये बस तैयार खड़ी थी इंदौर आने के लिए |रिक्शा वाले ने फटाफट बस कि डिक्की मे बस के कंडक्टर के साथ सामान रखा और कडक्टर ने कहा आप लोग बैठिये बस चलने वाली है \मैंने अपने पतिदेव से कहा -जरा चाय तो पी लेते |उज्जैन मे चाय बहुत अच्छी मिलती है |फिर रेलवे कि चाय पीने के बाद तो और ज्यादा अच्छी लगती है |इन्होने कहा -अब घर चलकर ही पियेगे एक से डेढ़ घंटा ही तो लगेगा |मै भी मन मसोस कर बैठ गई |और करीब पांच मिनट के बाद
बस भी चलने लगी तभी मेरी खिड़की के पास ठक - ठक कि आवाज हुई मैंने खिड़की का कांच थोडा सरकाया तो देखा
बस का कंडक्टर एक छोटे से डिस्पोजल गिलास मे चाय लिए खड़ा था और उसने कहा -जल्दी ले लीजिये |
मुझे लगा शायद इन्होने कहा होगा ?ये टिकट लेने मे व्यस्त थे |
आपने अपने लिए चाय नहीं मंगवाई ?
नहीं मैंने तो चाय का नहीं कहा ?मेरे हाथ मे चाय का गिलास देखकर इन्होने कहा |
उस कंडक्टर मेरी बात सुन ली थी जब मैंने चायपीने कि इच्छा जाहिर कि थी और तुरंत ही सामने कि दुकान से मुझे चाय लाकर दे दी |
मेरे लिए वह चाय अमृत तुल्य ही थी जो इतने अपनेपन से उसने लाकर दी थी \इंदौर आने के बाद मैंने उसे अपना फर्ज समझ कर पैसे दिए जो उसने बड़ी ही मुश्किल से लिए |
मेरे लिए ये स्नेहभरा क्षण अविस्मरनीय बन गया |

Wednesday, August 25, 2010

"स्त्रियाँ "

राखी का त्यौहार आते ही रेडियो पर बजने वाले राखी के गीत कानो में गूंजने लगते है और भावनाओ में हम भाई बहन के स्नेह को और मजबूत पाते है \राखी भाई बहन का त्यौहार तो है ही साथ ही इसमें भाभी के स्नेह कि मजबूत डोर भी होती है |कल जब मै अपने भाई के घर राखी बांधने गई तो रास्ते में अनेक बहनों को सजे धजे अपनी गोद में छोटे छोटे बच्चो को ले जाते हुए बसों में ,ऑटो में ,कारो में रास्ते पर चलते हुए हुए देखकर मन अनोखी सुन्दर भावना से भर गया \हमारे त्यौहार हमे कितना कुछ दे जाते है |भाभिया अपनी ननदों का इंतजार करती है उनके लिए सुन्दर साड़ियाँ उपहार खरीदती है |मिठाई पकवान बनाती है सुबह से अपने पति से कहना शुरू कर देती है नहा लो जल्दी से दीदी को ले आना |
दीदी तुम्हे राखी बांध ले ,खाना खा ले फिर मै अपने भाई को राखी बांधने जाउंगी |पतिजी, जो भाई भी है छुट्टी के दिन
अपनी नींद में खलल पड़ी जानकर कुनकुनाते हुए उठते है ,अभी अभी रविवार को पूरा दिन सोये फिर यह कहना नहीं भूलते कि छुट्टी के दिन भी सोने नहीं देती |
बहनों के आपस के प्रेम कि तो कोई तुलना नहीं , किन्तु भाभी और ननद का रिश्ता भी बेमिसाल है अपने सारे दुःख सुख आपस में बहुत ही स्नेह से बाँट लेता है ये रिश्ता |मेरी एक सहेली कि सासू माँ का अपनी ८० साल कि उम्र में भी अपनी भाभियों से इतना लगाव रखती है जितने अपने बेटे बेटियों से भी नहीं |कुछ ऐसा ही मुझे भी अपनी भाभी से स्नेह मिला है हम चार बहने और एक भाभी मिलकर हम पांच बहने ही बन जाती है |
एक लोक गीत की कुछ पंक्तिया याद हो आई ...

सुनी पड़ी है मेरे जी की अटरिया ,
अब तक न लीन्ही तुमने कोई खबरिया
कागा भाभी के अंगना जइयो
उड़ उड़ के इतना कहियो
कहियो की हम है तोरी -
ननदी की बतियाँ ,ननदी की बतिया ...

ऐसे
ही स्नेह से भरे क्षणों में कुछ भाव उभरे है |

धनिया मिर्ची हल्दी कि खुशबू
में रमती पेंटिंग के रंग बिखेरती है
स्त्रियाँ

दाल चांवल और रोटी में सामंजस्य
बिठाती कविता रचती है
स्त्रियाँ

धान कूटती
नर्म कपास बिनती
नाजुक चाय कि पत्ती तोडती
पशु का चारा सर पर उठती
मिलो दूर से सर पर पानी उठाती
दीवारों और आँगन मे
जीवन के "मांडने "(अल्पना )बनाती है
स्त्रियाँ

खनखनाती चूडियो के बीच भी
कलाई घडी सुई कि तरह
ऑफिस में
मॉल में
अस्पताल में
पेट्रोल iपम्प मे
चाय कि दुकान में
सब्जी कि दुकान मे
समय को संभालती
घर कि धुरी बनती है
स्त्रियाँ

धुले कपड़ो मे
स्नेह कि तह लगाती
विचारो को बुनती
घर को" घर "बनाती है
स्त्रियाँ

राजनीती कि बिसात पर
भले ही बिछाई गई हो
कभी ?
आज राजनीती
कि किताब है
स्त्रियाँ

बिन पिए ही
सच्चे रंगों के नशे मे
जीवन कि सच्चाईयों के साथ
जीवट जीवन जीती है
स्त्रियाँ

पिता ,भाई
पति ,पुत्र
के सुखमय
जीवन के लिए
अनेक व्रत
रखती है
स्त्रियाँ









Tuesday, August 24, 2010

"रक्षा बंधन "

रक्षा बंधन के अवसर पर अनेक बधाई और शुभकामनाये |
सभी छोटे भाईयों को स्नेहाशीष और बड़े भाईयों को प्रणाम |




Monday, August 16, 2010

"तुलसी जयंती "

पिछले वर्ष तुलसी जयंती पर मैंने यः आलेख लिखा था \आज भी मुझे उतना ही प्रासंगिक लगा इसलिए पुनः पोस्ट कर रही हूँ |
"सीता राम चरणरति मोरे "
आज श्रावण
शुक्ला सप्तमी है ,आज श्रीरामचरित मानस के रचयिता श्री गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है |
आज का दिन आते ही यादो में जाती है, तुलसी जयंती की वो "झलकिया" जो खंडवा शहर को अलग से पहचान देतीथी||वैसे तो खंडवा शहर दादा ( हम लोग उन्हें दादा ही कहते थे )माखनलाल चतुर्वेदी जी की कर्मभूमि ,हरफनमौला अभिनेता प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार की जन्म भूमि के नाम से ज्यादा जाना जाता है | मै60- 70 के दशक की बात कर रही हूँ जब खंडवा साहित्यिक द्रष्टि .सांस्क्रतिक द्रष्टि से मध्य प्रदेश के कई जिलो में अग्रणी माना जाता था |वहां का बसंतोत्सव ,तुलसी जयंती ,कवि सम्मेलन और कितनी ही साहित्यिक गतिविधिया अपने चरमोत्कर्ष पर थी | उस समय के वरिष्ट कवियों का आगमन बार बार होता ही रहता था |
तुलसी जयंती उत्सव तीन दिनों तक मनाया जाता था , इसके अंतर्गत पहले सभी सरकारी (उन दिनों निजी पाठशाला नही होती थी ) पाठशालाओं में भाषण प्रतियोगिता ,वाद विवाद प्रतियोगिता ,कविता प्रतियोगिता और सबसे आकर्षण का केन्द्र होती थी रामायण की चोपाई और दोहो की अन्ताक्षरी |अन्ताक्षरी में रामायण की अनेक चोपाई कंठस्थ करना होता था |
जो की स्कूली छात्र -छात्राओ वहां लिए बड़ा दुष्कर होता था |पहले अपनी स्कूल से स्पर्धा फ़िर दूसरी स्कूलों से स्पर्धा और अंत में तुलसी जयंती के दिन चयनित छात्र -छात्राओकी अन्तिम स्पर्धा |
अन्तिम और निर्णायक स्पर्धा शहर के बडे ग्रंथालय में आयोजित होती ,जहाँ नगर के सभी गणमान्य अतिथि उपस्थित रहते ,और वहां पर सामान्य जनता भी आमंत्रित रहती |सावन की रिमझिम बारिश में भीगते जाना ,अपने सहपाठियों का उत्साह वर्धन करना कभी न भूलने वाला मंजर है |सभी प्रतियोगिताओ के विषय रामचरित मानस के ही प्रसंग होते | राम भरत मिलाप , उर्मिला का त्याग बडा या सीता का त्याग बड़ा ?"ढोल गवार क्षुद्र पशु नारी सकल ताड़ना के अधिकारी ",इस चोपाई पर बड़े ही आक्रामक रूप में वाद विवाद होता था छात्र और छात्राओ के बीच |और इन सबमे एक विषय अनोखा होता था वो था ,"खंडवा में तुलसी जयंती का उत्सव इतनी धूमधाम से क्यो मनाया जाता है"?उस समय तो ठीक से इस विषय की गहराई नही समझ पाए ,क्योकि कभी दूसरे शहर में देखा नही था और कभी गये भी नही थे |
इस विषय के संस्थापक थे दादा पंडित माखनलाल चतुर्वेदी "एक भारतीय आत्मा ",जिनका उद्देश्य था की बच्चो को स्कुल से ही रामचरित मानस का ज्ञान सरल तरीके से आत्म सात करने को मिले और इसीलिए ये परम्परा का बीजा रोपण किया था तात्कालिक स्कूली शिक्षा के साथ |जिसमे सारा खंडवा "राममय और तुलसीमय "हो जाता था |बच्चो को बहुत कुछ अभ्यास करना होता था और अभिभावकों को उनका मार्ग दर्शन करना होता था |शिक्षको को अपनी स्कुल को अव्वल रहने का प्रयत्न करना होता था ,इसिलिये घर घर में रामायण के गुटके खरीदे जाते थे |इतना ही नही प्रतियोगिताओ के आलावा सांस्क्रतिक कार्यक्रम का आयोजन भी विभिन्न सरकारी गैर सरकारी संस्थाए ,भी अपने स्तर पर आयोजित करती थी जिसमे छोटी छोटी नृत्य नाटिकाए ,रामायण पर आधारित नाटक और रात में विशाल कवि सम्मेलन! जिसमे आज भी मुझे याद है हम कापी पेन लेकर जाते थे और नीरजजी ,शिवमंगल सिह सुमन आदि कवियों की कविता लिखकर लाते थे |
कुछ यादे और संस्कार जीवन में रच बस जाते है ,और किसी के साथ बाँटने में बडा सुख मिलता है बशर्ते की कोई उसे उतनी गंभीरता से सुने जितना गम्भीर और गरिमामय विषय हो |मै अपने को और उस समय के सभी लोगो को भाग्यशाली मानती हूँ , जिनको रामचरित मानस को इस रूप में जीवन में उतारने का अवसर दिया आदरणीय दादा ने |
आज के इस पावन पर्व पर भक्ति काल के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास जी को कोटि कोटि प्रणाम|
और एक भारतीय आत्मा को श्रधा सुमन |



Friday, August 13, 2010

कुछ यू ही ?बस ऐसे ही ??

देश के वीर सिपाहियों को और जो अपने देश की रक्षा करने में
शहीद होकर वीरता को प्राप्त हुए है ऐसे वीरों को शत -शत नमन | स्वतंत्रता दिवस
के अवसर पर सभी को अनेक शुभकामनाए और बधाई |
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कुछ यू ही कुछ ऐसे ही ??

गरीब कभी अपनी गरीबी का रोना नहीं रोता
अमीर कभी अपनी अमीरी का बखान नहीं करता |

बी. पि .एल कार्ड गरीब की सरकारी पहचान
मोटा चंदा अमीर की सरकारी पहचान |

सरकार तो पहरेदार हो गई है हमारी
न हम गरीब बन पाए और न अमीर को छु पाए

बच्चों को पालने की दरकार है
बूढों को सम्भालने की दरकार है
जो ये काम न कर सके
उनकी तो जवानी ही बेकार है

हम जानते है आशा दुखो का कारण है |शायद दूसरों से आशा लगाने को ही हमने अपनी नियति बना लिया-

अपने अतीत का गुणगान करते थकते नहीं ?
जब अवसर मिला तो
अपने ही सुखो में उलझे रहे
और आज फिर से
आशा लगाये बैठे है कि ,
आज के बच्चे ही हमारे देश के
भावी कर्णधार है
हम भूल गये?
हम भी तो कभी बच्चे थे
और ये गीत हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर गाते थे ,सुनते थे -

हम लाये है तूफान से कश्ती निकाल के
इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भाल के .......

वन्दे मातरम.
शोभना

Tuesday, August 10, 2010

नदी और चाँद









पूनम का चाँद
नदी के तल में ,
अपना प्रतिबिम्ब देखकर
गर्वित हो गया |
सितारों के झुरमुट के बीच
उसने
अपनी रौशनी और तेज कर दी ,
नदी थी शांत ,
दिन भर की थकी हुई ,
चाँद की भावनाओ से अनजान,
चाँद अपने में ही ,
फूला नही समा रहा था ,
वो अनजान था अब तक ?
वो हैरान है अब?
क्या नदी ने सचमुच
मुझे अपने
ह्रदय में जगह दी है ?
वो मुग्ध हो रहा था ,
अपनी उपलब्धी पर
और अपनी किरणों से
नदी को आकर्षित ,
करने की कोशिश कर रहा था ,
क्योकि उसके पास समय
सिर्फ़ एक दिन |
किंतु
नदी थी चिंता में
भोर होने को है ,
नाविक पास आते जा रहे है
गाये रम्भाती रही है
पनिहारिनों
की चुडियो की आवाज
कानो
में रस घोल रही है,

उसने अपने इन
चिर स्थायी साथियों से कहा ,
आओ तुम्हारे बिना मेरा जीवन कहा ?
नदी ने अपनी लहरे उचकाकर ,
तिरछे होकर चाँद को
पल भर देखा ,
चाँद उसके ह्रदय से
ओझल हो गया |

Sunday, August 01, 2010

"आंसुओ की मार्केटिंग "













घर के सरे कामो से निवृत होकर अख़बार पढ़ने बैठी तो बाहर से आवाज़ सुनाई दी ,आंसू ले लो आंसू ......... मैं उस आवाज को ध्यान से सुनने लगी ये क्या चीज़ है? शायद मुझे बराबर शब्द समझ नही आरहे थे फ़िर आवाज थोडी पास में आई और उसने फ़िर से वही दोहराया तब मुझे स्पष्ट समझ में आया वो आंसू बेचने वाला ही था|
मै उत्सुकतावश बाहर आई अभी तक सब्जी वाले .अख़बार वाले ,दूध वाले .झाडू बेचने वाले, आचार ,पापड़ ,बड़ी बेचने वाले चूड़ी बेचने वाले यहाँ तक क़ी हर तीसरे दिन बडे बडे कारपेट बेचने वाले आते रहते है! मुझे समझ नही आता कि इतने छोटे -छोटे घरो में इतने बडे बडे कारपेट कौन खरीदता है? और वो भी इतने मंहगे ?
भाई मै तो हाकर से कभी १०० रु से ज्यादा का सामान नही खरीदती!
हां पर ये मेरी सोच है, शायद लोग खरीदते होगे ?तभी तो बेचने आते है या फ़िर उनके रोज रोज आने से लोग खरीदने पर मजबूर हो जाते है?
राम जाने ?
किंतु आंसू?
क्या बात हुई ?ये भी कोई खरीदने की चीज़ है क्या ?
मैंने उसे आवाज दी ,वो १६- १७ साल का अपटूडेट सा दिखने वाला लड़का था|
मैंने उससे पूछा ?
आंसू बेचते हो ,येतो मैंने पहले कभी नही सुना ?
भाई आंसू तो इन्सान की भावनाओ से जुड़े है वो तो अपने आप ही आँखों से बरस पड़ते है रही बात नकली आंसुओ की तो फिल्मो में दूरदर्शन में रात दिन देखते है है उसके लिए तो बरसों से ग्लिसरीन इस्तेमाल होता है|
तुम ये कै से आंसू बेचते हो ?
अरे आंटीजी आप देखिये तो ?मेरे पास कई तरह के आंसू है ,आप ग्लिसरीन को जाने दीजिये वो तो परदे की बात है
ये तो जीवन से जुड़े है यह कहकर उसने एक छोटासा पेटी नुमा बैग निकला उसमे छोटी छोटी शीशीया रंग बिरगी
थी उसमे आंसू भरे थे|
मैंने फ़िर उसकी चुटकी ली बिसलेरी का पानी भर लाये हो और आंसू कहकर बेचते हो ?
उसने अपने चुस्त दुरुस्त अंदाज में कहा -देखिये ये सुनहरी शीशी में वो आंसू है जो लड़किया (दुल्हन)आजकल अपनी बिदाई पर नही बहाती क्योकि उनका मेकअप खराब होता है !इस शीशी को दुल्हन के सामान के साथ सजाकर रख दो
लेबल लगाकर जब कभी उसे मायके की याद आवेगी तो ये शीशी देखकर उसकी आँखों में आंसू जावेगे उसने बहुत ही आत्म विश्वास से कहा|
मैंने कहा -पर मेरी तो कोई लड़की नही है|
उसने तपाक से कहा -बहू तो होगी?फट से उसने बेगनी रंग की शीशी निकली और कहा उसके लिए लेलो उसे भी तो अपने मायके की याद आती होगी ?

अच्छा छोड़ो बताओ और कौन कौन से आंसू है ?
ये देखिये: उसने गहरे नीले रंग की शीशी निकली और कहने लगा इसमे बम धमाको में मरने वालो के रिश्तेदारों के
आंसू है जो सिर्फ़ राज नेता ही खरीदते है|
ये फिरोजी रंग की शीशी में दंगे में मरने वालो के अपनों के आंसू है जो सिर्फ़ डॉन खरीदते है|
ये हरे रंग की शीशी के आंसू उन औरतो के है जो बेवजह रोती है ?इन्हे समाज सेवक खरीदते है?
मै स्तब्ध थी1
मुझे चुप देखकर उसने दुगुने उत्साह से बताना शुरू किया -देखिये `ये पीले और नारगी रंग की शीशी के आंसू है
जो ज्ञान देते है ईश्वर से प्रेम करते है ये सिर्फ़ प्रवचन देने वाले साधू महात्मा ही खरीदते है|
और ये जो लाल रंग की शीशी में है ये तो चुनावो के समय हमारे देश में बहुत बिकता है क्योकि इसे हर राजनितिक पार्टी का बन्दा खरीदता है|
मैंने एक सफेद खाली शीशी की तरफ इशारा किया इसमे तो कुछ भी नही है ?
उसने कहा -इसमे वे आंसू है जो लोग पी जाते है इन्हे कोई नही खरीदता|
फिर वह कई रंग के आंसू बताता रहा|
मै सुस्त हो रही थी अचानक पूछ बैठी ?
अच्छा इनके दाम तो बताओ ?
उसने कहा - दाम की क्या बात है पहले इस्तेमाल तो करके देखिये अगर फायदा होता है तो दो आंसू दे देना,
मेरे स्टॉक में इजाफा हो जावेगा ................................

(image source - http://media.photobucket.com/)