Monday, December 30, 2013

पूजा और फल





ईश्वर को याद करने के,उसकी आराधना करने के  हरेक व्यक्ति के अपने तरीके होते है। अपनी माँ को हमेशा पूजा के बजाय पाठ  करते ही देखा क्योकि घर के देवी देवताओ कि पूजा सिर्फ दादाजी ही करते थे घर कि महिला का पूजा घर उसका रसोईघर था ,जब माँ अपने कर्त्तव्यों से निवृत  हुई तो पठन पाठन को ही अपनी पूजा माना, जिसमे उनकी दैनिक प्रातः  संस्कृत में गाई  गई प्रार्थना घर के वातावरण  को मंदिर बना देती।
उनके इस नियम में शुचिता का कोई खास महत्व नहीं था,और जब विदा ली हम सबसे तो नर्मदा किनारे अपना बचपन बिताने वाली माँ ने बस में नर्मदाष्टक बोलकर खंडवा- इदौर के रास्ते में माँ नर्मदा के दर्शन कर अपने को माँ को समर्पित कर दिया फूलो कि तरह। आज एक पारिवारिक कार्यक्रम में इसी तरह से चर्चाये चल रही थी सबकी अपनी अपनी पूजा के बारे में और उसके फल के बारे में, हम मध्यमवर्गीय लोगो कितनी भी गीता पढ़ ले पर अपने कर्म, फल के साथ ही जोड़ते है, मेरी दादी चाय पीती थी उसके छीटे भी भगवान को अर्पण करती थी ,इतने में एक भाभी बोल उठी मेरी माँ सुबह से घूमने निकलती और ढेर सारे  फूल तोड़ कर लाती  है बरसो से ,हम सब कहते- इतने फूल क्यों चढ़ाती हो ?वो कहती -फूलो कि तरह जाउंगी खुशबु बिखेरती बिना किसी को तकलीफ दिए। ईश्वर ने उनके फूल भी स्वीकार कर लिए।

Monday, December 16, 2013

"आ अब लौट चले "

                                                         

एक वैवाहिक समारोह में मेरी एक चचेरी भतीजी मिली   बहुत दिनों बाद ,पारिवारिक कुशल क्षेम पूछने के बाद वह मेरा हाथ पकड़ कर एक तरफ ले गई भीड़ से दूर लेकिन बड़ी स्थिर और शांत चिंत लग रही थी मेरे मन में बड़ी उथल पुथल मच गई थी एक उस मिनट में। वहाँ पड़ी कुर्सी पर बैठकर उसने मुझे कहा- आपने देखा बुआ !उस लाल शर्ट वाले भाई साहब को जो कि मेरी भतीजी के मौसी के लड़के थे ,मैंने कहा उसमे देखना क्या वो तो हर कार्यक्रम  में आते है हमेशा मिलते है समाज में बड़ा नाम है उनका , बहुत सारी  सामाजिक जिम्मेवारिया निभाई है उन्होंने ,सबसे हंसकर मिलते है और फिर तुम्हारे तो भाई ही है न ?उसमे नया क्या है ?
वही  तो आपको बताने जा रही हूँ आज तक वो जब सबसे गले लगाकर मिलते रहते थे आज तो सबको नमस्कार कहकर सबसे मिल रहे है और आज मुझे, मेरे मन में शांति मिल रही है कि जब वो मुझे गले लगाकर मिलते थे तो मुझे उस लिजलिजे अहसास से मुक्ति मिली -आज उन्होंने नमस्कार कहकर मुझसे पूछा और छोटी कैसी हो ?
ओह तो ये बात है,तूने तो पहले कभी बताया नहीं ?
कैसे बताती बुआ वो मेरे भाई जो थे ?
भाई ऐसे होते है क्या ?मैंने कहा
बुआ ;वो कभी कभार ही मिलते थे न ?
लेकिन बुआ कोई बात नहीं आप ज्यादा सोचो नहीं? शायद उन्होंने आमिर खान का प्रोग्राम देखकर ,या कि आज कल जितने तथाकथित बड़े लोगोका जो हश्र हो रहा है ,या कि अपनी हिटलर बीबी कि डांट खाकर अपनी हरकतो को सुधार लिया हो ? देर आये दुरुस्त आये। इतना कहकर भतीजी मुझे हाथ पकड़कर भीड़ में वापिस ले आई फिर भी मैंने पूछा ?तूने मुझे ये सब क्यों बताया जब तेरे पास ही समाधान है या फिर तूने उन्हें उनकी हरकतो के लिए माफ़ कर दिया ?
उसने खाने कि प्लेट हाथ में लेते हुए कहा -बुआ आप ब्लॉग शलाग लिखते  हो तो लोगो को बता सको कि अब लोग सम्भलने ,लगे है और न न न आप चिंता न करो अब ऐसी हरकतो पर  सबक सिखाना भी हम जान गई है
और मैं  प्लेट पकडे -पकडे सोचती और सोचती रह गई इस परिवर्तन के अहसास को।

Sunday, November 24, 2013

बाबूजी कि स्मृति में .....


आज25 नवम्बर के दिन बाबूजी कि चौतीसवी पुण्यतिथि है ,"बाबूजी " शब्द कहते हुए एक पूरा युग बीत  जाता है आँखों के  सामने । ५१ साल कि छोटी सी आयु में अपने जीवन को सार्थक बनाया उन्होंने | छोटी सी उम्र में नौकरी कर परिवार ,समाज ,कि जिम्मेवारी निबाहते हुए पढाई जारी रखते हुए प्राध्यापक पद पर  पहुंचकर शहर कि सांस्कृतिक ,साहित्यिक गतिविधियो को  मधुरता से गतिमान बनाया,  इंदौर आकाशवाणी पर जब उनकी कोई कविता या या गद्य प्रसारित होता पूरा मोहल्ला तन्मयता से उनकी मधुर वाणी कि मधुरता में डूब जाता और हफ्तो उसपर चर्चा चलती रहती । संयोग से बाई (माँ )बाबूजी कि पुण्यतिथि एक ही माह में आती है । आज भी उस दिन को भुला नहीं पाती जब  उनके नहीं होने का समाचार सुना था तब मुझे अहसास हुआ था कि" पैरो तले जमीन खिसकने "का क्या अर्थ होता है ।
हम सभी भाई बहन शोभना चौरे ,साधना चौरे ,कामना बिल्लोरे ,आशीष उपाध्याय ,चेतना डोंगरे कि और से
अनेकानेक प्रणाम |
"बाबूजी" कि स्मृति में उन्ही कि एक कविता  जो  उन्होंने  सन १९७७ में लिखी थी जो आजकि राजनीती के परिप्रेक्ष्य आज भी उतनी ही प्रासंगिक है |
एक कवि सम्मेलन में स्वर्गीय  बाबूजी नारायण उपाध्याय 

इतिहास बोध 

इतिहास अपने को
 दोहराता है ,सही 
किन्तु पात्र नहीं 
और न घटनाये
केवल वृत्तियाँ 
जो बदलती नहीं 
कोई माँ 
अब भी मांगती है 
पुत्र के लिए  राज्य
 और राम को 
अरण्य कष्ट 
पर आवश्यक नहीं 
भरत  को
श्रध्धा हो राम पर 
या उन मूल्यों पर 
जिनके लिए राम 
राम है सदियों से 
यह भी आवश्यक नहीं
कि हर बार 
सीता ही निमित्त हो 
युग के निर्णायक युद्ध का 
कौन जाने सत्य के लिए 
भरत  से लड़ना पड़े 
राम को 
या राम के लिए 
कोल ,किरात ,निषाद 
और वानर जैसे 
 निरीह जन को 
मोह ध्रतराष्ट्र का हो 
या कैकयी का 
अंत सबका होता है वही 
इतिहास अपने को
 दोहराता है, सही ...
-नारायण उपाध्याय


Monday, November 11, 2013

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार

स्त्रियो का संसार ,आधी आबादी का संसार
आज  समाज के हर क्षेत्र में आधी आबादी का महत्वपूर्ण योगदान है |
महानगरो में ,बड़े शहरो में ,छोटे शहरो में अपने कार्यो के अनुरूप महिलाये पुरस्कृत होती है और ये हम सबके लिए गौरव कि बात है किन्तु अपने सिमित साधनो में ,विपरीत परिस्थियो में भी छोटे शहरो कि कस्बो कि ,आधी आबादी निरंतर अपना पूरी क्षमता के साथ समाज को नये आयाम दे रही है चाहे वो पुरस्कृत न होती हो ?न ही कोई संस्था से जुडी हो? ऐसे ही एक स्त्री अपने घर संसार को चलाते हुए अपनी अध्यापन कार्य को बख़ूबी निबाहते हुए अपने इर्द गिर्द कि महिलाओ को एकत्र कर ,उनकी क्षमता को ,उनकी योगयता के अनुसार उन्हें अपने आत्मविश्वास के साथ ,जीवन जीने कि प्रेरक बनी है और इन्ही के साथ समय चुराकर कागजो में अपनी भावनाओ को कलम के द्वारा उकेरने कि भी भरपूर कोशिश कर रही है उसी टुडे मुड़े कागज से ये कविता उभरी है भरपूर सवेदना के साथ कीर्ति भट्ट ने इस समाज से सिर्फ एक विनती की है ...



"बेटी कि पुकार "

दो आँगन कि खुशियाँ हूँ मैं
अपनी लाड़ली बिटिया हूँ मैं
कात्यायनी ,मैत्रैयी सी विदुषी हूँ मैं
उर्मिला सीता सी धर्म परायण हूँ मैं
मुझे हवस भरी नजरो से देखने वालों
तुम्हारे आँगन कि भी शोभा हूँ मैं
मत अपनी पशुता का परिचय दो बार बार
मेरे अस्तित्व को न करो यूं तार  तार
जन्म लिया जिस कोख से ,उसे न करो शर्मसार
माँ ,बहन  , पत्नी के रूप में मैं ही देती हूँ प्यार
न मेरी आत्मा को करो तिरस्कार
न हो सकेगा सृष्टि का विस्तार
मैं ही हूँ जीवन का आधार ,मैं ही हूँ जीवन का आधार --------
कीर्ति भट्ट
देवास म. प्र .




Saturday, October 26, 2013

ऐसा क्यो होता है ?

ऐसा क्यों होता है ,अधिकतर
बियुटी पार्लर वाली डरावनी क्यों होती है ?
जिम का मालिक इतना मोटा क्यों होता है?
फल बेचने वाले इतना कड़वा क्यों बोलते है?
बादाम बेचेवालो का दिमाग ठस क्यों होता है?में कम करने वालेकी मुस्कराहट इतनी महंगी क्यों होती है ?
दूसरो का घर बनाने वाले वाले खुद बेघर क्यों होते है ?
बेशुमार अन्न पैदा करने वाले किसान ही भूखे पेट आत्महत्या क्यों करते है ?
जीवन भर दूसरो के लिए महा म्रत्युन्जय के जप पाठ करने वालो को दिन रात अपनी म्रत्यु का भय क्यों होता है ?
जीवन भर शादी करने वाले पंडित कि बेटी आजीवन क्वारी क्यों रह जाती है |
har vishav sundarismaj
har vishv sundri smaj seva ka vart leti hai fir bhi gli gli bchhe anpdh kyop hai ?shadi me
lakhokharch karne ke bad bhi talko bdhti sankhya kyo hai?
betiya lakshmi ka rup hai fir ghar me ate hi bap ka bojh kyo hai?
बैंक




मेरी माँ

http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/poems/0907/28/1090728054_1.हतं
वेब दुनिया का लिंक है कृपया क्लिक करे .

अपनी बात

सुधा से मिले बहुत दिन हो गये थे सोचा चलो आज मिल लू |सुधा मेरी छोटी बहन है , वो अधिक्तर बीमार ही रहती है ,इसीलिये यो कहिये सबको उससे मिलने उसके घर ही जाना होता है |
दोपहर को ही उसके घर जा पहुंची थी उसकी बहू ने अच्छे से मेरा स्वागत किया बढिया चाय नाश्ता कराया |
हम दोनों बहनों को बाते करते करते बहुत देर हो गई|
मै आने के लिए उठी ही थी की उसकी बहू रीना आई फ़िर पूछा ?
मम्मीजी शाम को कितनी भूख है /वैसे बता दीजिये उतना ही खाना बनाऊ ?
मै हैरत में थी रात को खाना है अभी से कैसे बता सकते है ?
सुधा मेरी ओर दयनीय नजरो से देखने लगी |
मै भी उनके घर की व्यवस्था के बारे में अपने विचार रखकर बात बढाना नही चाहती थी |
मै ये अनोखा प्रश्न लेकर सोच में पड़ गई |सुधा ने पहले भी कहा था रीना रोज रोज घर के सारे सदस्यों से पूछकर ही खाना बनाती |
तभी मुझे याद आया माँ की एक सहेली गीता मौसी हमेशा घर आती थी एक दिन मै भी बैठी थी तभी मैंने सुना ।
मौसी माँ से कह रही थी -देख सुधा की माँ -कभी भी रात के खाने के लिए मना मत करना -चाहे एक रोटी ही खाना |
माँ ने बडी मासूमियत से पूछा ?
क्यो?
मौसी ने इधर उधर देख और बडे रहस्यमय अंदाज में कहा -अगर तू एक दिन खाने का मना करेगी तो दोबारा कभी भी तेरी बहू रात को तुझे खाने को नही पूछेगी |
तो क्या सुधा की बहू भी इसी दिशा मे जा रही थी ????????/
क्या अगला सवाल यही होगा ?
मम्मीजी आज आप खाना खायेगी या नही ?
और अगर सुधा ने आज न कहा तो??????////

Friday, September 20, 2013

बस कुछ यूँ ही ....कुछ अध लिखा ....

बहुत दिनों से कुछ अधू रा  सा लिखा रखा है आज वो ही .....

 1.
हमने बाँट लिए
 नदी ,पहाड़, झरने
हमने बाँट लिए
 धरती के टुकड़े
 आकाश के कोने
बैचे न है उड़ने को,
तुम्हारे, मेरे
करते रहे हम!

जमा कर ली हमने
नफरत  ईर्ष्या  रंजिश

बाँट लेते हम
स्नेह ,प्रेम, मानवता 



2.
प्रभात  की किरन चमकी
गाये रम्भाई ,
 समूची स्रष्टि जीवंत हुई
साँझ की सुगंध महकी
गायों ने रज उड़ाई
पक्षियों ने कलरव किया ,
बाटा अपन दाना सो गये
 लहरे भी सुस्ताने लगी
घर तो महके ही ,
व्यंजनों से
सडक के आजूबाजू भी
ठेलो पर धुआ महकने लगा
ओ माँ !
तुम भी आराम ले लो
रात  ने अपने पैर पसार दिए है
चाँद ने तारो से दोस्ती कर ली है
अब जाने भी  दो माँ......







Saturday, June 01, 2013

सुविधा भोगी हम

सुविधा भोगी हम


 
 
 
 
सुविधाओ के आगोश में पलते हम ,
सुविधाओ के जंगल में खो गये हम ,
क्रांति की मशाल जलाते जलाते
सुविधाओ की अभिव्यक्ति में सिर्फ वाचाल हो गये हम |
बाजार की सुविधा में ,सुविधा के बाजार में
तन से धनवान मन से कंगाल हो गये हम ।

Monday, May 13, 2013

जीवन संध्या

 मै  नहीं जानती ये कविता कैसे बन कैसे बन गई ?एक क्षण कुछ महसूस किया और अगले एक मिनिट में
यह रचना बन गई |


घर में रखे पुराने सामान की तरह
चमकाए जाते है, कभी कभी वो
आज निर्जीव ही सही
कभी जीवन्तता थी उनमे
महकता था उनकी सांसो से घर
चहकता  था उनके बोलों से घर
गूंजते थे अमृत वाणी  से  मंत्र
सौंधी खुशबू  से महकती थी रसोई
भरे जाते थे कटोरदान ,पड़ोसियों के लिए 
किससे कहे ?कैसे कहे ?
निर्जीव क्या बोलते है ?
उनकी सारी खूबियों पर है प्रश्न चिन्ह ?
बिताते है इस उक्ति के सहारे
वो जीवन की शाम
"कर लिया सो काम ,भज लिया सो राम "|


Tuesday, April 16, 2013

गुजरात दर्शन

गुजरात दर्शन
द्वारकाधीश मंदिर ,बेट द्वारका और भुज (कच्छ )यात्रा ।
इस यात्रा से मोदीजी का कोई सम्बन्ध नहीं है ।
गु 
बेट द्वारका जाते हुए बिच में दारुका ज्योतिर्लिग मन्दिर अवम शिवजी की बड़ी मूर्ति 
गोपी तालाब 

रुक्मिणी मन्दिर के बाहर  का द्रश्य 
द्वारकाधीश मंदिर 
ध्वजा जी 
आइये अब चलते है कच्छ मेंभुज के पास एक गाँव है भुजोड़ी, जहाँ पर  विश्व प्रसिद्ध कच्छ की उत्क्रष्ट शालें

बनती है लगभग हर घर में लूम लगे है और गाँव गाँव लगते ही नहीं एक भाई के घर हम गये ये उनके घर का प्रवेश है

ये है सुन्दर शाले ,दरी ,गलीचे कुशन  कवर इत्यादि 
कुछ प्रबन्धन सस्थान से आई लड़कियां प्रशिक्षण लेने 

श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इस गाँव के लोगो की इस कला को जीवित रखने के लिए यहाँ के लोगो को एकत्र किया था 
क्या आप कह सकते है ये गाँव का  घर है Add caption
ये भी 
शालो के मेरी  साथ बहन कामना औ उनके पति 
लूम 

डिजाइन बनाने के लिए रंग बिरंगे उन और फ्रेम 
गाँव की झोपडी 
ऊँट गाड़ी 

यह संक्षिप्त है विस्तार से ,और अगले पड़ाव गुजरात का ही अगले भाग में |

Wednesday, April 10, 2013

निमाड़ का गणगौर उत्सव भाग 2

गणगौर की बिदाई ,गणगौर गीत भाग 2

गणगौर की बिदाई परसों है अभी से बिदाई के क्षणों की कल्पना कर सभी लोग भावनाओ में बह रहे है किन्तु अगले साल फिर नई उमंगो के साथ गणगौर को घर लाने की आकांक्षा में गणगौर की विदाई की तैयारी शुरू हो गई है लापसी ,दही भात , मीठा इमली का पानी ,पूड़ी, मेथी दाने का साग ,और पूरण पोली, पीली चुनरी , साफा
सब कुछ है तैयार |



रणुबाई
के श्रंगार का वर्णन और मायके से विदाई


|

अरघ देने के लिए कन्याओ द्वारा लाये गये पूल और पत्तिया पाती खेलना कहते है |

मौली राजा (जब सारी टोकरिया भर जाती है और जो कस्तूरी और गेहू बच  जाते है उन्हें एक स्थान पर रखकर सींचा जाता है )




  सामूहिक पूजा के बाद गाँव कि सारी महिलाये अपने दिन भर के खेती के काम निबटाती है क्योकि यह समय गेंहू कि कटाई का होता है |किसी के खेत में कटाई हो रही है तो किसी के गेहू खलिहान में रखे जा रहे है |कड़ी मेहनत के बावजूद रात को बाड़ी जहाँ जवारे बोये जाते है पूरे गाँव कि एक ही बाड़ी होती है वहां आकार गणगौर के गीत ,सामूहिक नृत्य बिना कोई खर्च के, बिना कोई तामझाम के देवी के गीत जिसमे श्रंगार ,दैनिक जीवन के कार्य का वर्णन होता है, कुछ पारम्परिक गीत जो सदियों से गाये जाते है ,कुछ और मनोरंजन के लिए तुकबंदी कर के रचे जाते है और पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते है |ऐसा ही ये एक श्रंगार गीत जिसमे रणुबाई चाँद, तारो, सूरज से अपने श्रंगार के लिए उनके गुणों का वर्णन कर अपने धनियेर  (पति ) से उनकी मांग करती है |
सिर्फ तालियों कि ताल और लय पर उनकी सारी भक्ति और उत्साह देखते ही बनता है |



शुक्र को तारो रे ईश्वर उंगी रह्यो |
कि
तेकी मख टिकी घड़ाव ||
अर्थ
-एक दिन रनु अपने पति से हट पकड जाती और कहती है -हे पतिदेव !वः आकाश में सबसे तेजस्वी शुक्र का तारा चमक रहा है ?उसकी मुझे बिंदी घडवा दो |
ध्रुव कि बदलाई रे ईश्वर तुली रही
तेकी मख तबोल रंगाव \
अर्थ
-और यह जो ध्रुव कि ओर (उत्तर में )बरसने योग्य बदली छाई हुई है उसकी मुझे चुनर रंगवा दो |
सरग कि बिजलई रे ईश्वर चमकी रही
तेकी मख मगजी लगाव
अर्थ -और सुनो स्वर्ग में कडकने वाली बिजली कि उसमे मगजी लगवा देना |
नव लाख तारा ,रे ईश्वर चमकी रह्य
तेकी मख अंगिया सिलाओ
चाँद
और सूरज रे ईश्वर चमकी रह्या |
कि तेखी मख बदन घड़ाव
अर्थ -साथ ही आकाश में चमकने वाले लाखों तारो कि मुझे कंचुकी सिलवाओ जिसके अग्र भाग में चाँद और सूरज जड़े हो| बासुकी नाग रे ईश्वर देखि रह्यो
कि तेकी मख येणी गुन्थाव
बड़ी
हट वालाई रे गोरल -गोरड़ी
अर्थ
-हे पतिदेव !जो ,वो जो इठलाता हुआ काले वर्ण का वासुकी नाग दिख रहा है , उसकी मुझे वेणी गुथवा दो | इस पर ,मुस्कुराते हुए उसके पति कहते है कि - "हे गोरवर्णरनु !तू बड़ी हट वाली है |" इस तरह अनेक गीत गाये जाते है और महिलाये अपने समर्द्ध परिवार कि कामना करती हुई रनु बाई कि बिदाई कि तैयारी करती है |क़ल गणगौर कि बिदाई का दिन है |
गणगौर देवी कि आराधना का पर्व है बेटी को ही देवी रूप में पूजते है और बेटी जब ९ दिन मायके रहकर जाती है तो उसका ससुराल जाने का मन नही है|अपने पिता से हठ करती है पिताजी आपके बाग में आम और इमली है मै सखियों के संग खाना और बाग में खेलना चाहती हूँ अभी मुझे ससुराल मत भेजो |,पिताजी कहते है -बेटी तुम्हारे ससुर ,जेठ ,देवर काले सफेद और घोड़े पार लेने आये थे तब उन्हें मैंने आदरपूर्वक लौटा दिया है पर ये lजो कुवंर लाडला अपनी छैल बछेरी लेकर आया है वो तुम्हे साथ लिए बिना नहीं जायेगा |
समझा बुझाकर विदा देते है
और साथ ही उपदेश भी देते है |माँ का उपदेश जहन ममता से भीगा होता है ,वहां पिता का उपदेश भी प्यार और गांभीर्य से खाली नहीं होता है |गीत का भावार्थ इस तरह है -बेटी जब अपनी सखियों। के साथ खेलने कि जिद करती है तो पिता समझाते है |बेटी !तुम खेलने के लिए जरुर जाओ पार स्रष्टी रूपी लम्बा बाजार देखकर दौड़ कर नहीं चलना क्योकि उसमे उलझकर गिरने का भय रहता है |पराये पुरुष से कभी हंस कर बात मत करना |कही पानी देख कर ही वस्त्र धोने नहीं लगना , क्योकि इससे साध्य के लिए ही साधन का उपयोग करने कि द्रढ़ता का लोप हो जाता है |कर्ण वस्त्र धोने के लिए पानी है ,पानी के लिए वस्त्र धोना नहीं |
गीत
पिताजी कि गोद बठी रनुबाई बिनय |
कहो तो पिताजी हम रमवा हो जावा
जावो बेटी रनुबाई रमवा जाओ
लंबो बाजार देखि दौड़ी मत चलजो
उच्चो व्ट्लो देखि जाई मत बठ्जो
परायो
पुरुष देखि हंसी मत बोलजो
नीर देखि चीर मत धोवजो
पाठो देखि बेटी ,आड़ी मत घसजो
परायो बालो देखि हाय मत करजो
संपत
देखि बेटी चढ़ी मत चलजो
विपद देखि बेटी रडी मत बठ्जो
जाओ
बेटी राज करजो
इस तरह रणु बाई अपने लश्कर के साथ ९ दिन तक अपने मायके में रहती है और अपने भक्तो पर आशीष कि वर्षा कर विदा लेती है सारे गाँव  की विपदाओं से रक्षा करती है और ढोल बाजे के साथ लहलहाते जवारो का बहती नदी में विसर्जन कर दिया जाता है और अगली चैत्र में फिर से आने का भावपूर्ण निमंत्रण दिया जाता है |
देवी गणगौर कि भावपूर्ण बिदाई |


 
बिदाई के पहले ज्वारो से गले मिलना हे देवी हमसे कुछ भूल हो तो क्षमा करे और और आपदाओ से रक्षा करे | 


 




Sunday, April 07, 2013

माटी .......

   माटी ....... 
माटी   याने जीवन ,धरती ,हमारा मूल ,कुदरत ,
माटी ,याने इंसानियत  ,विनम्रता ,धरती से जुडाव ।
हम सबको ,इन्सान व अन्य जीवों  को जोडती ,जोडती एक कड़ी ।
और सबसे अहम- जीवन के पश्चात् हमारा घर ...



और इसी माटी  को लेकर हमारेहर प्रदेश के  संतो ने जिनमे सूफी संतो की बहुलता है उनके कहे उद्गार आप तक पहुचने की एक छोटी सी कोशिश है मेरी ,जो की "लोकनाद टीम "का  संकलन है । 




अशी धरत्री ची माया ,
अरे तिले  नाही सीमा  ,
दुनिया चे सर्वे पोटं ,
तिच्या मधी झाले जमा ॥ 
-बहिणाबाई 
धरती की माया असीम है ,अपार  है  । 
दुनिया के हर उदर के लिए उसके भीतर पर्याप्त भंडार है । 

बहिणाबाई चौधरी (१ ८ ८ ० -१ ९ ५ १ )
जलगाँव के ,महाराष्ट्र  के किसान परिवार की बहिणाबाई का धरती से खेती से खास जुडाव था । 
उनकी कविता में अक्सर गृहस्थ जीवन और खेती के रुपको. द्वारा  जिन्दगी के गहन मसलो.  पर 
सटीक अभिव्यक्ति  दिखती है ।वे लेवा ओवी  मराठी रूप में रचनाये करती थी । साक्षर न  होने की वजह से उनकी कई कृतियों को उनके बेटे  ने लिखित रूप दिया | 




Saturday, April 06, 2013

"निमाड़ का गणगौर उत्सव "भाग 1

"निमाड़ का गणगौर उत्सव "भाग 1

 लो जी फिर गणगौर फिर आ गई है ,सज गई है नई उमंग से साथ और अपनी परम्पराओं के साथ फिर जीवन का संचार कर आतुर है  चैत्र माह में रंग भरने को ....



ऋतू में परिवर्तन हो रहा है जो की  प्रकृति का अपना नियम है वासन्ती बयार अब विदा ले चुकी है होली का खुमार भी अपने रंग छोड़कर उतर चुका है दिन गर्म होना शुरू हो गये है |अभी अभी फूलो की बहार है, चम्पा अपने शबाब पर है, मोगरा खिलने को व्याकुल है जूही, रात की रानी अपनी खुशबू बिखेरने को बेताब है |वही नीम के पेड़ पर भी नई  नै कोपले आने लगी है वातावरण में महुआ की खुशबू तैर गई है ऐसे मादक मोसम में "गणगौर का उत्सव "बरबस याद आ ही जाता है होठो पर गणगौर गीत अपने आप ही आ जाते है |तन मन थिरकने लगते है आज कितने भी आधुनिक उत्सव शहरी समाज ने अपना लिए हो किन्तु ग्रामीण उत्सवो का आज भी वही अंदाज है जो प्रकृति के साथ अपने को आत्मसात करके ग्रामीण लोग मनाते है निश्चय ही उन पर भी शहरी प्रभाव पड़ा है फिर भी उनकी इस संस्कृति  में ही उनकी ख़ुशी है |
पिछले वर्ष ही मैंने यह पोस्ट लिखी थी गणगौर पर इस साल नए पाठक और पढ़ सके अत: फिर से पोस्ट कर रही हूँ |
"निमाड़ का गणगौर उत्सव "

चैत्र की नवरात्री उत्तर भारत , के साथ सभी प्रेदेशो में कई रूप में मनाई जाती है |साथ ही राजस्थान कि गणगौर भी इसी समय मनाई जाती है जो कि सर्व विदित है |मध्य प्रदेश के ग्रामीण और अब शहरों में भी विशेषकर निमाड़ में गणगौर का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है कुछ कुछ बंगाल कि दुर्गा पूजा जैसा ही उत्साह होता है गाँवो में अपनी साल भर कि फसल कि कमाई से बचा कर रखा पैसा गणगौर पर्व पर श्रद्धा से खर्च करते है निमाड़ के किसान |चूँकि खेतिहर लोगो से जुड़ा है यह त्यौहार तो इसमें लोक संस्कृती कि प्रधानता है |

चैत्र वदी १० से चैत्र सुदी ३ तक के ९ दिनों के गणगौर उत्सव निमाड़ (मध्य प्रदेश )कि विशेषता है |इस अवसर पर सारा प्रदेश गीतमय हो जाता है और शिव -पारवती ,ब्रह्मा -सावित्री ,विष्णु -लक्ष्मी तथा चंद्रमा -रोहिणी कि वंदना के गीत गए जाते है |इनमे सबसे अधिक गीत रनुदेवी और उनके पति (धनियेर )सूर्य के के संवाद रूप में कहे गये है |
रणुबाई ही निमाड़ी लोकगीतों कि अधिष्टात्री देवी है |इसके एक गीत में सौराष्ट्र देश से आने का संकेत रनुदेवी कि पहिचान के लिए महत्वपूर्ण है |एक गीत में रनु बाई को रानी कहा गया है अन्यत्र रणुबाई के मंदिर का वर्णन है जिसमे रणुबाई बिराजती है और अपने भक्तो के लिए द्वार खोल देती है |
रनुदेवी सूर्य कि पत्नी राज्ञी का ही अपभ्रंश भाषा और लोकभाषा में घिसा हुआ रूप है |जैसे यग्य से जरान -जन्न जाना और उससे 'जन 'बनता है ;जैसा कि यज्ञोपवित शब्द से निकले हुए जनेऊ शब्द में पाया जाता है उसी प्रकार रण्नी -रानी
और अंत में" रनु "रूप बना |वस्तुतः राज्ञी देवी कि पूजा गुजरात -सौराष्ट्र में प्रचलित थी उसकी १४वि शताब्दी तक कि मुर्तिया पाई गई गई hai |
गणगौर को नारी जीवन का सुमधुर गीति काव्य कहा जाता है निमाड़ में |९ दिनों तक चलने वाले इस त्यौहार में एक भी ऐसा कार्य नहीं जो बिना गीत के हो, स्त्रियों द्वारा सामूहिक रूप से जब इस त्यौहार को मनाया जाता है तो कुछ ऐसा लगता है मानो ऋतुराज बसंत कि अगवानी कि जारही हो |
अमराइयो में कोयल कि कूक ,पलाश के फूलो कि लाली और होली कि उतरती खुमारी के साथ जब यह त्यौहार शुरू होता है ,तो गीतों कि गूँज से सारा गाँव सरोबर हो उठता है |
इसमें होली कि राख से चुने हुए कंकरों में गीतों के स्वर के साथ गौरी कि प्रतिष्ठा कर छोटी छोटी टोकनियो में मिटटी भरकर उनमे गेंहू बोने के रूप में मानो नारी के हाथो फसल कि प्राण प्रतिष्ठा कि जाती है और फिर उसे प्रतिदिन सींचते हुए नित्य आरती और उसकी उपासना कि जाती है -
अरघ सिंचन के समय गाने वाला निमाड़ी गीत -
म्हारा हरिया ज्वारा हो कि
गहुआ
लहलहे मोठा हीरा भाई वर बोया जाग
,
कि लाड़ी बहू सींच लिया

रानी सिंची जाण्य हो कि ज्वारा पेलापड्या |
उनकी सरस क्थोलाई हो ,हीरा भाई ढकी लिया
अर्थ -मेरे हरे जवारे के रूप में गेंहू लहलहा रहे है हीरा भाई के घर जाग बोया है और उनकी बहुए उन्हें सींच रही है वाह सींच कर निवर्त हुई है कि जवारे पीले पड़ने लगे है उनके सहस्त्रो अंकुरों को बहन ने स्नेह से ढँक लिया है |
मेरे हरे भरे ज्वारो के रूप में गेंहू लहलहा रहे है |
ये जवारे जीवन की सम्रद्धि के प्रतीक है |
हरे पीले जवारे ........
धनियेर राजा और रनु बाई कि इन बोलती मूर्तियों को रथ कहते है|
इन रथो में पीले जवारे रखकर नदी किनारे देवी को पानी पिलाने ले जाते है ,पूरा गाव एकत्र होकर सबकी मंगल कामना
हेतु देवी से लोकगीतों द्वारा विनती करते है |




आओ हम सब देवी का पूजन करे

इस गीत में देवी पूजा के लिए स्त्रियों के सामूहिक आव्हान के साथ ही साथ पूजन करने वाली कि भी महत्वाकांक्षाओ एवम देवी के संतानदाता स्वरूप का वर्णन है \इसमें धन ,धान्य एवम संतान से सम्पन्न आदर्श ग्रहस्थी का अत्यंत ही सजीव चित्रण है -
डूब का डंडला अकाव का फूल
रानी मोठी बहू अर्घ देवाय |
अर्घ दई वर पाविया
मोठा भाई सो भरतार
अतुलि पातुली लाओ रे गंगाजल पाणी ,|
नहावन कर रनु बाई राणी | रनु बाई रणुबाई खोलो किवाड़ |
पूजन
वळी उभी द्वार |
पूजन वाली काई मांग |
धूत
पूत अव्हात मांग |
हटियालो
बालों मांग |
जतिओयालो
भाई मांग |
बहू को रान्ध्यो मांग |
बेटी को परोस्यो मांग | तोंग्ल्या बुड्न्तो गोबर मांग |
पोय्च्या
बुड्न्तो गोरस मांग |
धणी
को राज मांग |
सोंना
सी सरवर गौर पूजा हो रना देव |

माय बेटी गौर पूजा हो रना देव |
ननद भोजाई गौर पूजा हो रना देव |
देरानीजेठानी गौर पूजा हो रना देव |
सासु
बहू गौर पूजा ही रना देव |
अडोसन पड़ोसन गौर पूजा हो रना देव |
पड़ोसन पर तुट्यो गरबो भान हो रना देव | कसी पट तुट्यो गरबो भान हो रना देव |
दूध
केरी दवनी मझ्घेर हो रना देव |
पूत
करो पालनों प्टसल हो रना देव |

स्वामी सुत सुख लड़ी सेज हो रना देव |
असी पट तुट्यो गरबो भान हो रना देव |

आरती - करंड कस्तूरी भरिया ,छाबा फूलडा जी
तुम
भेजो हो धनियेर रनूबाई ,
जो
हम करसा आरतीजी
थारी
आरती आदर दिसां देव दमोदर भेटंसा जी |
अर्थ
-

इस करंड भर कस्तूरी और छाबड़ी भर फूल लेकर हम देवी कि आरती कर रहे है
हे भाई तुम अपनी पत्नी को इस आरती में सम्मिलित होने को भेज दो |
हम रनु कि आरती को सम्मान देगे और दामोदर -स्वरूप भगवान से भेंट करेगे|
क्रमशः