Wednesday, January 30, 2013

बस कुछ यूँ ही ....



दिन तो बीत  जाते है ,
रातें  रतजगा हो चली है ।
 नैन नीर  बहाते है ,
अपनों का सपना  बन जाने से ।
कब  हुआ ,कैसे हुआ ,क्यों हुआ ?
अब ये कहना  व्यर्थ  लगता है ,
क़ि
"बोया पेड़ बबूल  का आम कहाँ से पाओगे "
हमने तो
 लगाई थी अमराई
तुम्हारी" हरित क्रांति" ने
उसे" नीम का  वन" बना दिया ।
अब वन में वो साधू संत कहाँ ?
जो नीम की औषधि बना देते ,
हमे तो  नीम की छाँव भी तसल्ली देती है
क्या करे ?
वो भी योग के साथ साथ
बाजार में बंद डिब्बों में आ गई  है
इसीलिए तो ,
दिन तो बीत  जाते है
और
रातें  रतजगा हो गई है ।







Sunday, January 13, 2013

 दामिनी के लिए एक कविता 

 

"निमित्त"

मै ही सीता हूँ
जिसे
अपनी मर्यादा को
बचाने केलिए
वन भेज दिया

मैही शूर्पनखा हूँ
जिसे तुमने
प्रणय निवेदन करने पर
क्षत विक्षत कर दिया।

मै ही द्रोपदी हूँ
जिसे तुमने
अंधे के दरबार में
दांव पर लगा दिया।

कभी तुमने मर्यादा का
अहंकार किया
कभी तुमने
अपने पुरूष होने का
अहंकार किया
कभी तुमने
अपने पद का अंहकार किया
मुझे क्षत विक्षत
करके भी तुमने
मेरा ही अपहरण किया ?

मेरा चीर हरण
करके
मुझे महाभारत का
निमित्त बनाया ?

मैंने ही
तम्हें रचा ,तुम्हारा सरजन किया

तुमने मुझे

कभी बिह्डो में छोडा

कभी बाजार में बेचा

एक

सुंदर संसार की सहभागी बनू

ये समानता थी मेरी

कितु तुमने ही

मुझे कैकयी बनाया

मन्थरा बनाया

अपने ग्रंथो में,


मै चुप रही

आज तुमने मुझे

फिरसे

आदमियों के जंगल में

खड़ा करदिया है

बिकने के लिए


नही?

अब कोई मेरा
अपहरण नहीं करेगा
न ही, मेरा चीर हरण करेगा

न ही मुझे धरती में समाना होगा

न ही मुझे किसी की
जंघा पर बैठना होगा
मालूम है ?
तुम्हे
क्यो ?
क्योकि !
शक्ति ने
स्वीकार ली है,
नर- बलि |
shobhana chourey