Tuesday, October 10, 2017

#यादों की पोटली #२
मुख्य द्वार पर एक पीतल की गोल कुंडी लगी होती
 उसके घुमाने पर अंदर लगी लकड़ी जो दो पल्लो पर लगी होती वो हट जाती और दरवाजा खुला जाता जिसे निमाड़ी बोली में" अग्गल" कहते ।जिसे बाहर से कोई भी खोल कर आ जाता सिर्फ रात को ही सांकल लगाई जाती थी अंदर से !
ताले चाबी का कोई रोल नहीँ था।
सुबह सुबह जब सुखलाल मामा आते प्रभात फेरी की घण्टियाँ दूसरी गली से सुनाई देती दादाजी दरवाजे की सांकल खोल देते ।
पिछला दिन दशहरे की खुशी में बीता आज दशहरा मिलने वालों की गहमा गहमी में ।
इस बीच अपना रुपया अपनी चचेरी बहनोँ बुआओं को बताने का सुख भी लूट चुके थे अब क्या करें ?उन दिनों हमारी 24 दिन की छुट्टी होती थी।
अब सब बहनोँ ने अगले दिन से रंगोली बनाने का तय किया उन दिनों रंगोली गांव में नहीँ मिलती थी
गांव के बाहर कुछ गुलाबी पत्थरो की छोटी छोटी सी खदानें थी वहाँ से पत्थर तोड़ कर लाना होता था ।
जिसे सिरगोला कहते थे
दादा दादी बहुत मुश्किल से भेजने को तैयार होते
कहते!सुखलाल ले आएगा !
पर हम भी जिद पर अड़ते और उन्हें हाँ कहनी पड़ती
मामा का काम निपटे !तब जाएं उसके आगे पीछे घूमते
तीन बहने हम और दूसरी सब मिलाकर कुल 8 से 10 हो जाते दौड़ते भागते पत्थर तोड़कर लाते।
दूसरे दिन इमामदस्ते (खलबत्ते) में कूटते छानते
और रंगोली तैयार सफेद झक।
अब रंगीन रंगोली भी चाहिए  तो दादा की स्याही की बोतल से नीला रंग,दादी के मसाले के डिब्बे से पीला रंग,और कंकू से लाल रंग कोयले से काला रंग इन सबको बनाने में दो दिन लग जाते ।
बीच बीच मे डांट मिलती (पोर ई न हो न जिमि तो लेव)
लड़कियों खाना तो खा लो।
फिर पड़ोस के घर जाना जीजी तुमने कितने रंग बनाये देखकर आना उत्साहित होकर फिर स्याही घोलना यही क्रम चलता रहता।
हाँ तो मैं बात कर रही थी मुख्य दरवाजे की दरवाजा खुलते ही दाहिने हाथ पर कचहरी(बैठक)तीन सीढ़ी चढ़कर थोड़ी ऊंचाई पर  घुसते ही खिड़की  पास खुली जगह फिर एक सीढ़ी और एक बड़ा सा गद्दा उस पर सफेद सी चादर बड़े बड़े लोट रखे हुए ,
वहीं दादा की लकड़ी की पेटी ,जिसमे उनका सारा जरूरी सामान ,उस पेटी में कई खाने (खांचे)बने होते
जिसमे करीने से कलम दवात, सुपारी सरोता, माचिस की तीलियाँ  ग्राम पंचायत के कागज और भी न जाने कितना सामान ।
पेटी की चाबी दादा के पास जनेऊ में लगी होती
हमें इंतजार रहता उस जादुई पेटी के खुलने का
और 5 पैसे का सिक्का लेने का।,😃
गद्दे के एक तरफ बड़ी सी लकड़ी के टेबल होती दो बड़ी सी कुर्सियां होती।
थोड़ी से नीचे की तरफ बड़ा सा लकड़ी का पलंग
लगा होता सिर्फ दोपहर के आराम के लिए।
पूरी दीवाल पर लकड़ी की फ्रेम में चारो तरफ मढ़ी हुई
तस्वीरें लगी रहती पूर्वजो की, सारे भगवानों की।
एक बड़ी सी घड़ी जिसमे रोज चाबी देना होता था
तब वह टन्न टन्न घण्टियाँ बजाती थी।
 पलंग की साइड की तरफ ही पंखे की रस्सी चलाने वाला मानकर दाजी बैठता।(पंखा झलने वाला)
एक बड़ा सा झालर वाला रंगबिरंगा पंखा आज भी मन बैचेन कर देता जब उसकी गिररी (चकरी) चलती
तो लगता सारा सुख इसी को चलाने में है।
जब भी दादाजी और उनके मिलने वाले  कचहरी में बैठते तो लगातार पँखा चलता ।
उस समय हम बच्चों का वहाँ प्रवेश निषेध होता।
दाहिनी तरफ कचहरी फिर लम्बा से गलियारा पार कर
बरामदा होता ।जिस तरह हमारा प्रवेश द्वार वैसे ही
गलियारे की दूसरी तरफ हूबहू वैसा ही गलियारा बायीं तरफ कचहरी वैसे ही नजारा उसका जहाँ मेरे दादाजी के काकाजी बैठते जिनको पूरा गाँव मुंशी दाजी के नाम से जानता था जो मालगुजार थे।
और इसी तरह कचहरी की दाहिनी तरफ से हूबहू वैसे ही 3 घर और थे जहाँ पर मेरे  चचेरे परदादाओ की बैठकें थी । बरामदे के बाद एक बड़ा सा आँगन था उस आँगन में एक पत्थर सी खूब चौड़ी सी बैंच बनी थी जो सारे पांचों घरों की एक होने की सबूत है आज भी
जिसे निमाड़ी में दासा कहते है।
हमारा उनकी बैठक में बेरोकटोक आना जाना था
उनसे भी 5 पैसे के सिक्के मिलने का सदा लालच रहता।दोनो घरों के बरामदे के बीच एक दरवाजा था जहां से आने जाने का अपना ही आनन्द था।
अगले दिन सुबह सुबह गोबर से दरवाजे के सामने लीपकर उस पर रंगोली बनाना ।
,आड़ी तिरछी लकीरे बनाना फिर मिटाना इस क्रम में कई घण्टे लग जाते फिर हारकर बड़ी जिजियों के पास जाना,
दूसरी बड़ी बहने बहुत अच्छी रंगोली बनाती उनकी मिन्नत करते जीजी हमारी भी बना दो ।
जिजियाँ बड़ी अच्छी होती हमारी सारी समस्याएं हल कर देती।
दशहरे के कुछ दिन बाद शहर से पिताजी और काकाजी आते तब  हमारी कूदा फांदी ,को जरा ब्रेक लग जाता।बाबूजी से सदा डर लगता।
काकाजी भी तोथोड़ा डरते क्योकि वो कॉलेज में पढ़ते और बाबूजी भी उसी कॉलेज में पढ़ाते थे।
अब हम काकाजी के आगे पीछे घूमते क्योकि वो उनके भाइयो दोस्तो के साथ मिलकर  दीपावली के लिएआकाश कंदील बनाते
रंग बिरंगी पन्नियां,बांस की लकड़ी, ल ई बनाते ।
और बहुत मेहनत के बाद खूबसूरत आकाश कंदील बन जाते।
एक साथ बनाते ऊपर तीसरी मंजिल पर जहाँ सारा सामान बिखरा रहता कोई नहीँ होता रोकने टोकने वाला।बनने के बाद अपने कंदील सब घर ले जाते।
सुबह की रंगोली जो हम उन्ही दिनों बनाते थे! तब!
पर इधर कुछ दिनों पहले जब वापिस गांव जाना हुआ तो प्रभात फेरी की घण्टियाँ फिर उन दिनों को लौटा ले
आई पर वो मार्च का महीना था किंतु गांव की बालाओ ने सुबह सुबह आँगन में पानी छींटकर रंगोली बनाकर दीपक जलाकर रखे थे।
मैंने उनसे पूछा ?
रोज बनाते हो रंगोली?
तो खुश होकर बोली- जब से गाँव मे भागवत जी हुई
तो पंडित जी ने कहा! सुबह रंगोली बनाओ दीपक जलाओ तब से हम रोज बनाते है।
कहने को सहज सी बात किंतु संस्कारो के बीज ऐसे ही
फैल गए और वो नन्ही लड़की पीढ़ियों तक सींचती रहेगी ये अनमोल फसल।
उन दिनों की तस्वीरें तो नहीं है पर आज 50 साल बाद भी उन गलियों में जब बेटियां जिजियाँ जाती है गणगौर उत्सव में तो उन्ही जगहों पर रांगोली बनाकर जो सुख
पाती है वो अवर्णीय है!!!!!

Sunday, October 01, 2017

yado ki potli

बैल गाड़ियाँ सजा दी गई है ,सारे दरवाज़ों पर नींबू काटकर देहलियों पर रख दिये है ।
आज सुखलाल मामा ( जो घर के सारे काम देखता था )को दम मारने की फुर्सत नही रहती थी।
कंदील चिमनी साफ करने है उनमें घासलेट भरना है
फिर बैलों को चारा पानी, गाय का दूध निकालना है ।
रोज तो ये सब दिया बत्ती के बाद हो जाता है ,पर आज गाड़ी बैल से दशहरा जो जीतने जाना है वहां से आने पर अंधेरा हो जाएगा तो सारे काम जल्दी जल्दी निपटाने है !
उधर दादी कह रही थी सुखलाल थोड़ी सी गिलकी तोड़ दे मैं शक्कर मिलाकर रख दू तेरे मालिक और ये छोरियां दशहरा जीतने जाएगी तो मुंह मीठा करके जाएंगे ।
भले ही सुबह पूर्ण पोली खाई हो पर दशहरा तो गिलकी शक्कर खा कर ही जाना है।
गिलकी जैसा नरम स्वभाव इसके प्रारूप में मान्यता रही होगी।
और हम बच्चियां तीन बहने क्रमशः 7 ,5,4 साल की कबसे दादा के सिलवाये पेट शर्ट पहने बैल गाड़ी में बैठ दादा का इंतजार कर रही थी।
नियत समय पर सारे काम निबटाकर सुखलाल मामा आया बैलों को गाड़ी में जोता हम बहनो का खुशी का कोई ठिकाना नही!
अब मालिक याने दादाजी का इंतजार सफेद धोती कुर्ता काली बंडी, (जैकेट)हाथ मे लकड़ी सर पर काली टोपी पांव में नए जूते पहनकर जब मुख्य दरवाजे से निकले तो हमारी जान में जान आई कि अब चलेंगे
पर अभी कहाँ ?
गांव के लोगो ने टीका लगाया पांव
पड़ने देर में देरी !
आखिर गाड़ी चली बैलों के गले की घण्टियाँ बजनी शुरू गांव से निकलकर गाड़ी मुख्य सड़क पर आई सड़क क्या?पगडंडी पर आई मामा गाड़ी दौड़ाओ
न?,दादा ने आंखे दिखाई हम चुपचाप बैठ गए ।
नियत स्थान पर पहुंचे सब लोग याने की 9 दिन से चल रही रामलीला के सभी कलाकार राम ,लक्ष्मण, हनुमान
बाली ,सुग्रीव सभी दादा गांव के मुखिया का इंतजार कर रहे थे।
और गांव के लोग भी उत्सुकता से रावण दहन का इंतजार कर रहे थे
सामने घास फूस का रावण तैयार था
रामजी ने धनुष चढ़ा लिया था और रावण के पीछे ही एक तुवर की लकड़ी पर कपड़ा चढ़कर उसे घासलेट में डुबोकर तैयार बैठा था
दूसरे रामलीला के गायकों द्वारा राम की स्तुति हुई
राम जी ने धनुष मस्तक को लगाया और बाण छोड़ा उधर कपड़े में माचिस लगाई और रावण के पुतले में आग लगाई पुतला धु धु जलने लगा।
सियावर रामचन्द्र की जय से खाली खेत गूंजने लगा
और हम रामजी को बड़ी ही श्रद्धा से निहारते रहे।
और यूँ असत्य पर सत्य की विजय हुई।
दादा को ऐसा कहते सुना।
शमी की पत्तियों का आदान प्रदान हुआ
और बहुत सारी पत्तियां घर पर लाये क्योकि हमे भी सबको देनी थी और आशीर्वाद लेना था ।
खूब खुशी घर आये आँगन में परदादी बैठी थी
सबसे पहले दादा ने उनके पांव छुए फिर वो पड़ोस में अपने काका काकी से आशीर्वाद लेने पहुंचे।
हमने भी सब बड़ो को प्रणाम किया
हमे 1,1 रुपया मिला माँ ने गिलकी के भजिये बनाये थे वो खाये ।
उन रुपयों को लेकर आधी रात तक क्या लेना है मनसूबे किये ,कल सारी दूसरी बहनो को, गांव की सहेलियों को रुपये दिखाना है इसी में कब सो गए मालूम नही।
सुबह उठते ही दादाजी के पास ओटले पर बैठ गए
वहां से जो भी गुजरता दादाजी को पायँ लागू कहकर सर झुकाकर आगे बढ़ता ।
उन्ही में से जो रामजी बने वो भी
पाय लागू कहकर दादा को प्रणाम कहते हुए निकले
कल दादाजी ने उन्हें प्रणाम किया।
,आज उन्होंने दादा को प्रणाम किया।
क्यो किया ?कभी समझ न आया
आया पर वो दशहरा आज भी भुलाए नही भूलता
वो मेरे
" गाँव का दशहरा"
बरबस ये गजल याद आ जाती है
राजेन्द्र नीना गुप्ता की गाई हुई
एक प्यारा सा गांव
जिसमे पीपल की छाँव,
छाँव में आशियाना था
एक छोटा मकान था
छोड़ कर गाँव को हम
उस घनी छाँव को हम
शहर के हो गए है,
भीड़ में खो गए है !
वो नदी का किनारा, जिसमे बचपन गुज़ारा,
वो लड़कपन दीवाना, रोज पनघट पै जाना
फिर जब आई जवानी बन गए हम कहानी
छोड़ कर गाँव को उस घनी छाव को शहर के हो गए
भीड़ में खो गए है.
एक प्यारा सा गांव
जिसमे पीपल की छाँव,
कितने गहरे थे रिश्ते. लोग थे या फ़रिश्ते,
एक टुकडा ज़मी थी, अपनी जन्नत वही थी,
हाय ये बदनसीबी, नाम जिसका गरीबी
छोड़ कर गाँव को उस घनी छाव को शहर के हो गए
भीड़ में खो गए है.
एक प्यारा सा गांव
जिसमे पीपल की छाँव,
ये तो परदेश ठहरा
देश फिर देश ठहरा
हादसों की ये बस्ती
कोई मेला न मस्ती
क्या यहाँ ज़िन्दगी है
हर कोई अजनबी
छोड़ कर गाँव को
उस घनी छाव को शहर के हो गए
भीड़ में खो गए है.
एक प्यारा सा गांव
जिसमे पीपल की छाँव,
स्वर - राजेंदर मेहता व नीना मेहता

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Tuesday, August 01, 2017

बस कुछ यूं ही

अभी अभी कुछ ख्याल
भिगो गए मन को
जैसे सावन की झड़ी


भिगो गई तन को
रविवार की खामोश
सुबह
सप्ताह के
जीवंत
कितने ही मौन
का उत्तर दे गई।




Saturday, July 01, 2017

pavs

आज १ जुलाई अंतराष्ट्रीय ब्लॉग दिवस की अनेक बधाई।
सोशल मिडिया पर  आजकल बहुत संदेस  आते है पुराने लोगो की बातें  सहेज कर रखे.
बिलकुल सही भी है इसी क्रम में मुझे अपने मायके में बहुत पुराणी क्किताबो में सं उन्नीस सौ अठाईस की माधुरी पत्रिका का बिशेषांक मिला (फ़िल्मी माधुरी नहीं )०जिसके सम्पादक थे पंडित कृष्णबिहारी मिश्र
मेनेजिंग एडिटर पंडित रामसेवक त्रिपाठी
जिसका वार्षिक मूल्य विदेश के लिए सिर्फ १ रुपया था।
उसी अंक में से महाकवि देव की पावस रचना
  1. पावस 
सहर सहर सोंधो, सीतल समीर डोले
घहर घहर गहन, घेरि के घहरिया
झहर झहर झुकि, झीनी झरि लायो देव
छहर  छहर छोटी, बूंदन छहरिया
हहर हहर हँसि हँसि, के हिंडोरे ,चढ़ी
थहर थहर तन,, कोमल थहरिया
फहर फहर होत  पीतम को पीतपट
लहर लहर होति, प्यारी की लहरिया।

Thursday, June 29, 2017

सभी को नमस्कार।
आप